भारत-चीन: तनातनी व निर्भरता

मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार mrinal.pande@gmail.com चीन अब एक बार फिर मित्र देश भूटान के डोकलम इलाके में खड़ा होकर भारत को खम ठोंक सैन्य चुनौती दे रहा है. चीन की ऐसी हरकत नयी बात नहीं है. पंचशील समझौते के बमुश्किल तीन महीने बाद, (अगस्त 1954 में) नवस्वतंत्र भारत की सीमा पर चीन के अतिक्रमण के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 20, 2017 6:50 AM
मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
mrinal.pande@gmail.com
चीन अब एक बार फिर मित्र देश भूटान के डोकलम इलाके में खड़ा होकर भारत को खम ठोंक सैन्य चुनौती दे रहा है. चीन की ऐसी हरकत नयी बात नहीं है. पंचशील समझौते के बमुश्किल तीन महीने बाद, (अगस्त 1954 में) नवस्वतंत्र भारत की सीमा पर चीन के अतिक्रमण के प्रयासों की पहली खबर आयी थी.
अगली गर्मियों में उसके सैन्य दस्ते घोड़े लेकर गढ़वाल में तंबू गाड़ कर जम गये. लद्दाख और नेफा से चीनी घुसपैठ की कोशिशें बढ़ती गयीं. अक्तूबर 1962 में उसकी सेना के एक पूरे डिवीजन ने इलाके में धावा बोला और तीन दिनों में हमारी 14 चौकियां छीन लीं. भारत चीन के बीच हुए इस अघोषित युद्ध का अंतिम नतीजा भारत के लिए सुखद नहीं रहा और तब से अब तक व्यापार और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहउपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद चीन से भारत के राजनयिक रिश्ते सशंक बने रहे हैं.
साल 2014 में नये प्रधानमंत्री मोदी ने जब चीन के राष्ट्र प्रमुख शी को भारत में लाल कालीन बिछा कर न्योता दिया और फिर दोनों की एक रंगारंग हिंडोले में साथ-साथ झूलती फोटो जारी हुई, तो लगा कि शायद तनाव से भरे द्विपक्षीय राजनय के माहौल में अब एक सुखद नयी अनौपचारिकता भरने जा रही है, जो दोनों देशों के लिए कई तरह की स्वस्थ साझेदारी बनाने का रास्ता खोल देगी.
लेकिन, उसके बाद लगातार (कभी उत्तर-पूर्व तो कभी लद्दाख और सिक्किम और फिर मित्र देश भूटान में) बेझिझक हो रही चीनी घुसपैठों और जमीन पर दावेदारी की घोषणाओं से जाहिर होता है कि चीन का पुराना आक्रामक और गर्वी रुख बदला नहीं. वह जानता है कि आज वह दुनिया में सबसे बड़ी आबादीवाला नहीं, सबसे बड़ी आर्थिक हैसियतवाला देश है.
वह अब एशिया में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल से लंका तक नये तरह के सामरिक व्यापारिक गठजोड़ साध कर इस इलाके का सबसे बड़ा प्रवक्ता और निर्विवाद मुखिया बनने की इच्छा जता रहा है. और इसमें उसे भारत अपना इकलौता प्रतिद्वंद्वी लग रहा है. इसीलिए पाकिस्तान तथा नेपाल दोनों की पीठ पर हाथ रख कर वह भारत की तरफ एक आक्रामकता को शह दे रहा है. एशिया की महाशक्ति बनने का सपना देखते भारत के लिए चीन की हरकतों ने कई तरह की आर्थिक, सामरिक और मनोवैज्ञानिक चुनौतियां पैदा कर दी हैं.
भारत में 2010 में 52 मिलियन डाॅलर का चीनी निवेश आज बढ़ कर 1,636 डाॅलर का हो गया है. सस्ता इस्पात ही नहीं, भारतीय टेलीकॉम में भी चीनी माल की इतनी बड़ी उपस्थिति है कि हमारे स्मार्टफोन बाजार का 51 फीसदी भाग चीनी है और तिस पर हम हर बरस 70 हजार करोड़ रुपये का टेलीकॉम उत्पादों से जुड़े अन्य सामान भी चीन से आयात कर रहे हैं. हमारे डिजिटल उपक्रमों का माहौल चीनी उत्पादों से पूरी तरह रचा-बसा है.
उधर ऊर्जा क्षेत्र में हमारी उत्पादन की कुल क्षमता का 30 फीसदी भाग चीन से आयातित सामग्री पर टिका हुआ है. सौर ऊर्जा के क्षेत्र में पिछले एक साल में आयातित कुल माल का अस्सी फीसदी से अधिक भाग चीन से ही आया है. इसी के साथ उसकी अलीबाबा, बैदू और शियाओमी सरीखी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी अमेजन, गूगल और फेसबुक से सीधी स्पर्धा करती हमारे सामने तन कर खड़ी हैं. और जब हम अपने बाजार में नोटबंदी, खेतिहरों की आत्महत्याओं और मांस निर्यात जैसी नाहक उपजायी गयी समस्याओं से जूझ रहे हैं, चीन आगे जाकर दुनिया में दामी कारों के उत्पादन में भी बड़ी हिस्सेदारी लेने में जुटा हुआ है.
इसका एक वामन डग वह भारत में (गुजरात के हलोल में) जनरल मोटर्स की कंपनी खरीद कर भर चुका है और खबर है कि अलीबाबा अब अमेजन से स्पर्धा करने भारत आ रहा है.
इतिहासकार टॉयनबी के अनुसार, इतिहास में जब-जब कोई रोम जैसा बड़ा साम्राज्य आक्रामक बाहरी बर्बर (हूणों सरीखे)दुश्मन के हाथों धूलधूसरित हुआ है, उसकी एक बड़ी वजह खुद उसकी भीतरी कमजोरी रही है. लेकिन, आज की दुनिया रोमन युग की दुनिया नहीं है. आज की दुनिया परस्पर निर्भर सभ्यता और बाजारवाली है, जहां कुछ दिन पहले का साम्यवादी रूस पूंजीवादी अमेरिका-यूरोप का दोस्त है और दोनों चीन को सलाम करते हैं.
चीन की चुनौती का सही जवाब देना हो, तो मारो-मारो का शोर मचानेवालों की बजाय भारत को पहले अपनी सैन्य स्थिति व आर्थिक हितों की व्यावहारिक सुध लेनी होगी. यह चिंताजनक है कि देश के पास एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री तक नहीं है. केंद्र में बेपनाह ताकत केंद्रित कर चुके नेतृत्व के सामने आक्रामक हिंदुत्व का हिंसक प्रचार करते दस्तों की वजह से बहुधर्मी विविध भाषा-भाषी भारतीय जनता की संघीय गणतंत्र में डगमग होती आस्था बहाली का मसला भी तवज्जो मांगता है.
हम यह नहीं नकार सकते कि देश के निराशाग्रस्त हिस्सों में सीमा पार से पाक-चीन धुरी से मदद मांगनेवाले अलगाववादी मौजूद हैं. गोरक्षा के नाम पर हिंसा की और चीन द्वारा सीमा पर दावेदारी की हम कड़ी निंदा करते हैं, यह कहना कतई काफी नहीं है.

Next Article

Exit mobile version