भीड़ से अलग रहने का समय

डॉ सय्यद मुबीन जेहरा शिक्षाविद् राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर हर समय कोई न कोई अपनी ओर से विरोध प्रदर्शन या धरना देता मिल ही जाता है. अभी कुछ दिन से यहां भीड़ द्वारा हिंसा को लेकर कई विरोध प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं. हालिया दिनों में गौरक्षा के नाम पर कुछ लोगों ने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 21, 2017 6:39 AM
डॉ सय्यद मुबीन जेहरा
शिक्षाविद्
राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर हर समय कोई न कोई अपनी ओर से विरोध प्रदर्शन या धरना देता मिल ही जाता है. अभी कुछ दिन से यहां भीड़ द्वारा हिंसा को लेकर कई विरोध प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं. हालिया दिनों में गौरक्षा के नाम पर कुछ लोगों ने जिस प्रकार का उत्पात सड़क से लेकर रेल तक में मचाया है, उसने कहीं-न-कहीं भारत की गंगा-जमुनी तहजीब की मजबूत चूलों को हिलाने का काम किया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसको समझ गये थे, इसलिए उन्होंने न केवल गुजरात के साबरमती आश्रम से ऐसी हरकतें करनेवालों को लताड़ा, बल्कि दिल्ली से भी इनके विरोध में आवाज उठा कर यह चेताने की कोशिश की है कि सरकार इन हरकतों को होने नहीं देगी. इस पर विरोधी पार्टियों को भी कहने का अवसर मिल गया है कि प्रधानमंत्री के केवल बोल देने भर से कुछ नहीं होगा, क्योंकि जिन राज्यों में इस प्रकार की हिंसक वारदातें हुई हैं, उनमें अधिकतर में भाजपा का ही शासन है.
दरअसल, भीड़ द्वारा घेर कर मारने की प्रवृत्ति को अगर देखा जाये, तो यह किसी विशेष समुदाय या धर्म से जुड़ी नहीं है. यह मानव समाज में सब में ही पायी जाती है. अक्सर हम सामने वाले की अच्छाई और बुराई एवं सही-गलत को नहीं देखते. बस भीड़ के उकसाने पर जो चाहे, वह करने निकल पड़ते हैं.
हमारे समाज में जितनी भी हिंसाएं भीड़ के द्वारा हुई हैं, अगर उसे देखा जाये, तो इसमें कभी भी सजा भीड़ को नहीं मिलती है. कुछ-एक मामले ऐसे सामने तो आये हैं, जहां किसी घटना के बाद पूरे गांव को सजा देने की बात की गयी हो, लेकिन कुल मिला कर भीड़ का कोई ऐसा चेहरा नहीं होता, जिसको सामने लाकर सजा दी जा सके. यही वजह है कि भीड़ की मानसिकता होती है- हम चाहे कुछ भी कर लें, हमारा तो कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता है.
जब कोई भीड़ किसी प्रकार की ऐसी सोच से भड़क जाती है, जहां अपने ही जैसे व्यक्ति से भरपूर नफरत सिखायी जाती है, तब वह भीड़ अधिक खतरनाक होती है, क्योंकि ऐसी भीड़ किसी को जाने बगैर भी उससे नफरत पालती रहती है. ऐसी भीड़ ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को अपनी हिंसा का शिकार बना लेती है, जिनसे जीवनभर न तो उनका आमना-सामना होना होता है और न ही जिनसे उनका कुछ लेना-देना होता है. इस प्रकार की भीड़ अत्यंत खतरनाक होती है.
ऐसी भीड़ का कोई नेता भी नहीं होता. इस भीड़ को पता ही नहीं होता कि वह क्यों यह सब कर रही है और कब इसे रोकना है. ऐसी भीड़ में कुछ ऐसे स्वार्थी तत्व भी शामिल हो जाते हैं, जिनका केवल मकसद अपना उल्लू सीधा करना होता है. इसमें समाज के वह गलत लोग भी मिल जाते हैं, जो ऐसे मौकों का फायदा उठा कर लूट-मार करते हैं. उनकी पूरी कोशिश होती है कि देश-समाज में हालात इतने खराब हो जायें, जिससे उन्हें लोगों के घर-दुकानें लूटने का भरपूर अवसर मिल सके.
गौर करें, तो दंगों के दौरान इस प्रकार के स्वार्थी तत्व बहुत अधिक सरगर्म रहते हैं. ये लूटेरी प्रवृत्ति के होते हैं और इन पर कोई आंच भी नहीं आती, क्योंकि दंगों का चाहे कोई भी कारण हो, उसमें यह कारण जुड़ा ही नहीं है. जब हम दंगों के बाद भी दो गुटों में बंट कर दंगों का विरोध और दंगों का समर्थन करने में लग जाते हैं, तब यह लुटेरे आराम से लूटे हुए माल पर ऐश कर रहे होते हैं.
इसलिए किसी भी सभ्य समाज में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होती है, लेकिन हम अपने देश के अलावा इस पूरे उपमहाद्वीप और कई अरब देशों में हिंसा की ऐसी घटनाएं देखते हैं, जिनसे लोग अलग-अलग खानों में बंट कर एक-दूसरे के विरुद्ध हिंसा का हिस्सा बनते हैं.
इसमें दोनों का ही नुकसान होता है, कभी बराबर और कभी किसी का कम या किसी का अधिक. जो संवेदनशील समाज होते हैं, उनकी पूरी कोशिश होती है कि इस प्रकार की हिंसा से बचा जाये और शांति से देश की प्रगति की राह हमवार किया जाये. ऐसे देश के नेता अपने बयानों से भी कोशिश यही करते हैं कि देश की असल समस्या की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करके उनके समाधान के लिए कोशिश करें और उसमें समाज के हर वर्ग का समर्थन उन्हें प्राप्त हो, ऐसी उनकी कोशिश होती है.
सत्ता पाना उनके लिए केवल राष्ट्र को आगे ले जाने का माध्यम मात्र ही होता है. इसलिए हम अधिकतर पश्चिमी और यूरोपीय देशों में देखते हैं कि वहां सत्ता बदलने के बाद भी राष्ट्रीय पाॅलिसी में कोई बड़ा बदलाव उस समय तक नहीं होता, जब तक कि उस बदलाव को लेकर सभी की राय न जान ली जाये.
अभी संसद का सत्र शुरू हुआ है और शुरू में ही भीड़ की हिंसा को लेकर जिस प्रकार का शोर हुआ, उसमें दो बातें समझ में आती हैं- एक विपक्ष है जिसे सत्ता पक्ष को घेरना है और जो सत्ता पक्ष है, उसे विपक्ष के हमलों से स्वयं को बचाना है. जबकि इस प्रकार की हिंसा केवल आज की बात नहीं हैं. कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी रूप में यह किसी-न-किसी राज्य में हो ही रही होती हैं. जहां जिस भीड़ का ज्यादा दल-बल है, वह वहां दूसरे को निशाना बनाने से नहीं चूक रहा है.
सत्ता पक्ष के किसी नेता का बयान सुनिये, तो वह पश्चिम बंगाल और केरल के हमलों का जिक्र जरूर करेगा और अगर आप विपक्ष से बात कीजिये, तो उसके बयानों में इनका कोई जिक्र नहीं मिलेगा. अपनी सहूलियत के अनुसार मामलों को चयनित करने की जो हमारी सोच है, वही समाज में इनसाफ को हम से दूर करने का काम करती है. अभी दिल्ली में बिजली की चोरी रोकने गयी एक टीम पर पूरे गांव की भीड़ ने हमला कर दिया. पुलिस की मौजूदगी में जान बचा कर भागने की कोशिश में बिजली विभाग के एक अफसर की मृत्यु हो गयी. अब यह हत्या क्या भीड़ की हिंसा में आयेगी या नहीं?
सबसे पहले हमें हर हिंसा से तौबा करनी होगी और भीड़ में रहते हुए सबको भीड़ की मानसिकता से बाहर निकलने की आदत डालनी होगी. जब तक समाज हिंसक भीड़ से बाहर नहीं निकलेगा, तब तक भीड़ की हिंसा से कोई भी नहीं बच पायेगा.
फर्क सिर्फ इतना है कि कभी भी कोई भी अपनी भीड़ से अलग घेरा भी तो जा सकता है. विशेष रूप से वह लोग जो सच्चाई का साथ देते हैं, क्योंकि ऐसे लोगों की भीड़ लगातार सिकुड़ती ही जा रही है और यह भीड़ में रहते हुए भी भीड़ से अलग होते हैं.

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