मेड और मैडम का वर्ग संघर्ष

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर दिल्ली से सटे नोएडा से कुछ दिनों पहले खबर आयी कि घरेलू दाइयों, जिन्हें अंगरेजी में लोग ‘मेड’ कहते हैं और ‘मैडम’ लोगों में संघर्ष हो गया. यह अपने तरह की अलग घटना है. दाइयां घरों में काम करती रहती हैं. उनकी ओर न तो समाज का और न […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 24, 2017 6:28 AM
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
दिल्ली से सटे नोएडा से कुछ दिनों पहले खबर आयी कि घरेलू दाइयों, जिन्हें अंगरेजी में लोग ‘मेड’ कहते हैं और ‘मैडम’ लोगों में संघर्ष हो गया. यह अपने तरह की अलग घटना है. दाइयां घरों में काम करती रहती हैं.
उनकी ओर न तो समाज का और न ही सरकारों का ध्यान जाता है. इन घरेलू सहायकों के बिना उच्च और मध्य वर्ग का जीवन कितना कठिन हो सकता है, इस विषय में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं है. इनका भरपूर शोषण किया जाता है. इनका न्यूनतम वेतन निर्धारित नहीं है. काम के घंटे, छुट्टियां, कुछ भी तो निर्धारित नहीं हैं. साहब और मैडम की मर्जी से ही इनका सब कुछ तय होता है. दफ्तरों और कारखानों में कामगारों के लिए अमूमन आठ घंटे काम का प्रावधान होता है, लेकिन घरेलू दाइयों के लिए काम के घंटे तय नहीं होते हैं. साहब और मेमसाहब की दिनचर्या के अनुसार उन्हें चलना है..
पूरे घटनाक्रम पर नजर दौड़ाएं. सेठी परिवार में घरेलू सहायक जोहरा बीबी करीब दो महीने के काम का बकाया मांगने पहुंची. लेकिन, वह घर नहीं पहुंची.
जोहरा का आरोप है कि उसे सेठी परिवार ने चोरी का आरोप लगा कर बंद कर दिया. जब बस्ती में जोहरा बीबी को बंधक बनाने की बात फैल गयी तो पड़ोस के झुग्गी बस्ती से बड़ी संख्या में दाइयां और मजदूर सोसाइटी में आ धमके. उसके बाद वहां दंगे जैसे हालात बन गये. इन लोगों ने अपार्टमेंट पर पत्थरबाजी की. पुलिस के आने पर स्थिति काबू में आ पायी. जोहरा बीबी को बिल्डिंग के एक कमरे से छुड़ाया गया. सेठी परिवार का कहना है कि वह वहां चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराये जाने के बाद या डर से भाग कर छिपी हुई थी.
दूसरी ओर जोहरा बीबी का दावा है कि उसे रात भर सिर्फ इसलिए बंदी बना कर रखा गया, क्योंकि उसने बकाये वेतन की मांग की थी. इसके बाद खबरें चल पड़ीं कि जोहरा बीबी बांग्लादेशी है जबकि उनका कहना है कि वह पश्चिम बंगाल से है.
यह घटना गंभीर समस्या की ओर इशारा करती है. इन दाइयों और अंसगठित क्षेत्र के मजदूरों के काम के घंटे, न्यूनतम वेतन, छुट्टियां, साप्ताहिक अवकाश आदि तय नहीं हैं. जिस दिन दाई छुट्टी ले अथवा बीमार पड़े उस दिन उसकी तनख्वाह तक कट जाने का खतरा रहता है.
आप अपने आसपास देखें तो सभी जगह यही कहानी है. जोहरा बीबी हर घर में मौजूद है और वह शोषण की शिकार है. मुझे दिल्ली में लंबे समय तक रहने का अनुभव रहा है, उस आधार पर मैं बता सकता हूं कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में जाति गौण हो गयी है और उनकी जगह समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित है. उच्च वर्ग है, मध्य वर्ग है और कामगार हैं, जिन्हें निम्न वर्ग का माना जाता है. महानगरों में दाइयों की जाति और धर्म पर ध्यान नहीं दिया जाता. दिल्ली-नोएडा और गाजियाबाद से सटा एक गांव है- खोड़ा. यह देश का सबसे बड़ा गांव है और आबादी चार -पांच लाख है. यह नाम के लिए गांव है.
पूरे इलाके में कच्चे- पक्के मकान बने हुए हैं. इनमें अधिकतर अवैध हैं. बुनियादी सुविधाओं का यहां नितांत अभाव है, जबकि यह गांव दिल्ली एनसीआर की नाक के नीचे है. इस गांव में बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल,ओड़िशा जिस राज्य का आप नाम लें, उसका गरीब तबका आपको मिल जायेगा. सभी धर्मों और जातियों के लोग मिल जुलकर बड़े प्रेम से रहते हैं. सभी त्योहार प्रेम से मनाये जाते हैं. कोई सांप्रदायिक तनाव नहीं, क्योंकि सबकी एक पहचान है- वे मजदूर हैं. यह गांव दिल्ली आनेवाले हर मजदूर को पनाह देता है.
करीब आधे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को यह गांव दाई, ड्राइवर, बढ़ई, पुताई करने वाले जैसे दिहाड़ी मजदूर उपलब्ध कराता है. सुबह में साझा ऑटो से यहां से दाइयों के जत्थे काम पर निकलते हैं. ऐसा कहा जाता है कि अगर खोड़ा के लोग हड़ताल पर चले जायें, तो कम से कम आधी दिल्ली में जीवन ठप हो जाये. ड्राइवर के न आने से साहब लोग दफ्तर नहीं पहुंच पायेंगे और मेड के न आने से मैडम नौकरी पर नहीं पहुंच पायेंगीं.
दाइयों के शोषण की दास्तां केवल भारत तक सीमित नहीं है. ऐसे भी मामले आये हैं कि भारतीय विदेश सेवा जैसे संभ्रात तबके के अधिकारी विदेशों में तैनाती के दौरान भारत से दाइयों को ले गये और उनके साथ शोषण और दुर्व्यवहार किया. जब उस देश ने हस्तक्षेप किया तो वह कूटनीतिक विवाद का मामला बन गया है. अगर गौर करें तो महानगरों में छुआछूत का नया स्वरूप सामने आया है.
गांव में दलितों-वंचितों को गांव के कुएं से पानी नहीं भरने नहीं दिया जाता है. महानगरों में तो कुएं हैं नहीं, लेकिन उसका स्वरूप बदल गया है. दिल्ली के अनेक अपार्टमेंट में दाइयों के लिफ्ट के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है या फिर उनके लिए अलग से एक पुरानी लिफ्ट निर्धारित है. रहती भले ही वे घर में हैं, पर सोसाइटी में ग्राउंड फ्लोर पर बने टॉयलेट का ही इस्तेमाल कर सकती हैं. रात-बिरात उन्हें कई फ्लोर नीचे उतरना पड़ता है.
बिहार और झारखंड से रोजगार की तलाश में हजारों लोग हर साल बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं. इनमें दिल्ली एनसीआर जानेवालों की संख्या बहुत बड़ी हैं. ऐसी अनेक घटनाएं सामने आयी हैं, जिनमें झारखंड से बहला-फुसला कर ले जायी गयीं आदिवासी लड़कियों का शोषण किया गया. झारखंड से ज्यादातर लड़कियां दिल्ली से सटे गुड़गांव ले जायी जाती हैं.
यहां मल्टीनेशनल अथवा आइटी कंपनियों में काम करने वाले साहब या मैडम रहते हैं. उन्हें गृह कार्य के लिए दाइयों की जरूरत होती है. देश भर में सक्रिय एजेंट गरीब माता पिता को फुसलाकर उनकी बेटियों को प्लेसमेंट एजेंसियों तक पहुंचाते हैं. ऐसी अनेक घटनाएं सामने आयीं हैं कि इनमें से कुछ लड़कियां का या तो एजेंसी मालिक अथवा नियोक्ता द्वारा शारीरिक शोषण तक किया गया
अभी तक इन्हें कामगारों की श्रेणी में नहीं रखा गया है, जिससे उनके अधिकारों की अनदेखी होती है. सबसे बड़ी जो समस्या इन्हें अपने काम के अनुरूप वेतन नहीं मिलना है. दूसरी गंभीर समस्या अमानवीय व्यवहार है. कानूनन 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से घरेलू कामकाज नहीं कराया जा सकता है, लेकिन इस देश में ऐसे कानूनों की परवाह कौन करता है.

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