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विदाई भाषण में अहम बातें

नीरजा चौधरी राजनीतिक विश्लेषण delhi@prabhatkhabar.in संसद के सेंट्रल हॉल में बीते रविवार को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के विदाई समारोह का आयोजन किया गया था, जिसमें उन्होंने अपने विदाई भाषण में राष्ट्रपति भवन में रहते हुए बीते दिनों के अपने यादगार लम्हों का जिक्र किया और कुछ महत्वपूर्ण बातें भी कही. उन बातों का राजनीतिक दृष्टि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 25, 2017 6:50 AM
नीरजा चौधरी
राजनीतिक विश्लेषण
delhi@prabhatkhabar.in
संसद के सेंट्रल हॉल में बीते रविवार को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के विदाई समारोह का आयोजन किया गया था, जिसमें उन्होंने अपने विदाई भाषण में राष्ट्रपति भवन में रहते हुए बीते दिनों के अपने यादगार लम्हों का जिक्र किया और कुछ महत्वपूर्ण बातें भी कही.
उन बातों का राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्व है. हालांकि, माना यह जा रहा था कि प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के कद्दावर नेता के साथ-साथ देश के सबसे ऊंचे पद पर हैं, इसलिए वे सरकार से कुछ सवाल जरूर करेंगे. लेकिन, ऐसा पूरी तरह से नहीं हुआ और वे सरकार के साथ कदम-से-कदम मिला कर चलते रहे. करीब 50 साल पुराने ‘शत्रु संपत्ति कानून’ में संशोधन अध्यादेश पर प्रणब मुखर्जी ने चार बार हस्ताक्षर किया, लेकिन पांचवी बार हस्ताक्षर करने को लेकर उन्होंने अपनी नाराजगी जतायी.
इस बात को उन्होंने अपने विदाई भाषण में जोर देकर कहा कि सरकार को अध्यादेश से बचना चाहिए. यह बहुत महत्वपूर्ण बात है और शायद इसीलिए उन्होंने आगे कहा कि संसद में बिना बहस के पास हुआ कोई भी बिल जनता के साथ एक धोखा है. इस तरह से सरकार और विपक्ष का ध्यान खींचते हुए प्रणब दा ने चार-पांच जरूरी मुद्दों पर रोशनी डाली थी. वे मुद्दे हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए बहुत ही अहम हैं. क्योंकि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक, इन तीनों नजरिये से देखें, तो हमारा देश विकट परिस्थिति से होकर गुजर रहा है.
विदाई भाषण में एक तरफ प्रणब मुखर्जी ने सरकार और नरेंद्र मोदी की सराहना तो की, लेकिन वहीं सरकार की कार्यशैली पर प्रहार भी किया. इसके लिए उन्होंने विश्वविद्यालयों में होनेवाले गैरजरूरी सरकारी हस्तक्षेप की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय ऐसी जगह है, जहां वाद-विवाद, सहमति-असहमति, बहस-मुबाहिसा आदि का होना बहुत जरूरी है, ताकि विश्वविद्यालय के छात्र अपनी पढ़ाई और शोध के आयाम को विस्तार दे सकें. सरकार पर दूसरा प्रहार उन्होंने मोब लिंचिंग को लेकर किया कि देश में जो माहौल बन रहा है, वह देश के लिए अच्छा नहीं है.
भीड़ हिंसा का माहौल हमारे भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है. इन सब बातों से प्रणब दा ने सरकार को आगाह किया कि सरकार न सिर्फ इन सब चीजों से बचे, बल्कि ऐसे माहौल के पनपने पर लगाम लगाये.
विदाई भाषण में उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही कि संसद को हर हाल में चलने देना चाहिए. जाहिर है, यह इशारा विपक्ष की तरफ था कि वह संसद की कार्यवाही में व्यवधान न डाले. विपक्ष सड़क पर उतरता है, तो उतरे, लेकिन संसद के अंदर के कामकाज को उसकी गरिमा के साथ चलने दे. अगर उनकी बात पर गौर करें, तो यह सही बात है कि संसदीय कामकाज में व्यवधान से विपक्ष ही कमजोर होता है.
यानी विपक्ष को जिस वक्त में सरकार की खामियां उजागर करनी चाहिए, उसी वक्त में वह शोर-शराबा कर संसद को चलने नहीं देता. इस तरह हल्ला-गुल्ला में ही सारा वक्त बरबाद होता है और सरकार सीधे तौर पर बच के निकल जाती है. अगर विपक्ष के पास कोई कद्दावर नेता है, तो उसे चाहिए कि वह अपने तर्क से, आंकड़ों से, सरकार की जवाबदेही को याद दिलाते हुए सरकार की खामियों को उजागर करे, न कि हल्ला-गुल्ला करके सरकार को बच निकलने का मौका दे.
अगर विपक्ष ऐसा करता है, तो उसकी बात पूरे देश में जायेगी और वह खुद में मजबूत होगा. यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जब-जब विपक्षा संसद में शोर-शराबा करता है, तब-तब वह सरकार की कमियों को छिपाने में मदद करता है. इसलिए विपक्ष को चाहिए कि वह अपनी भूमिका को समझे. लेकिन, अफसोस कि ऐसा नहीं हो पाता है और संसद एवं देश का बहुमूल्य समय बरबाद हो जाता है. यही वजह है कि बार-बार प्रणब मुखर्जी ने इस बात को कहा कि हर हाल में संसद को चलने देना चाहिए.
प्रणब मुखर्जी के विदाई भाषण के बाद मन में कई सवाल उठ रहे हैं. आखिर हमने अपने सिस्टम को इतना क्यों बिगाड़ा हुआ है? क्यों विपक्ष संसद को चलने नहीं देता?
आखिर क्यों संसद अब अपनी कार्यवाहियों को लेकर पहले जैसी संसद नहीं रही? पक्ष और विपक्ष अपनी भूमिकाएं क्यों नहीं समझ रहे हैं? संसद को एक राजनीतिक अखाड़ा बना कर क्यों उसके महत्व को कम कर दिया गया है?
हर जगह की राजनीति में टकराव होता है, जिसकी एक सीमा होती है और थोड़ा-बहुत टकराव के होने से मुद्दों-मसलों की महत्ता बनी रहती है. लेकिन, जिस प्रकार से हमारे देश भारत में टकराव की राजनीति हो रही है, वह लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजाेर करनेवाली है. इन्हीं सब बातों के मद्देनजर प्रणब मुखर्जी के विदाई भाषण का महत्व बढ़ जाता है. जिस सामान्यीकरण के साथ प्रणब दा ने पक्ष और विपक्ष का ध्यान राजनीतिक और संसदीय मर्यादा की ओर खींचा है, उस पर अब ठोस कदम क्या होता है, यह देखनेवाली बात होगी.
सरकार की जवाबदेही को कैसे बढ़ाया जाये और विपक्ष को कैसे मजबूत किया जाये, इस बात पर पूरा जोर रहा है प्रणब मुखर्जी का. इसलिए अब यह एक आगामी जिम्मेवारी भी हमारे नये राष्ट्रपति पर होगी कि वे इन चीजों को कैसे देखते हैं.
मेरे ख्याल में हमारे नये राष्ट्रपति के लिए कोई नयी चुनौती नहीं होगी, क्योंकि हर राष्ट्रपति मौजूदा सरकार के साथ कदम-से-कदम मिला कर ही चलता है. प्रणब मुखर्जी ने भी यही किया और रामनाथ कोविंद भी यही करेंगे.
यह ठीक भी है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि राष्ट्रपति के पास क्रियान्वयन की शक्तियां नहीं होती हैं, लेकिन उसके पास नैतिक अधिकार (मोरल अथाॅरिटी) जरूर होता है, ताकि चीजें सुचारू रूप से चलती रहें और सरकारें अच्छे विधेयकों को लाती रहें. हालांकि, इस समय देश में जिस तरह से स्थितियां विकट बनी हुई हैं, उससे नये राष्ट्रपति को क्या चुनौतियां मिलती हैं, यह देखनेवाली बात होगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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