चुनाव में धनबल का दुरुपयोग चिंता का सबब बन गया है. झारखंड के दौरे पर आये मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि चुनाव आयोग ने बाहुबल के दुरुपयोग पर काफी हद तक काबू कर लिया है. इवीएम के इस्तेमाल और सुरक्षा बलों की पर्याप्त तैनाती के बाद बूथ कैप्चरिंग जैसी वारदातें अब शायद संभव नहीं रह गयी हैं. लेकिन धनबल का दुरुपयोग रोकना अब भी बड़ी चुनौती है. पैसे के बल पर मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश अनैतिक ही नहीं, दंडनीय भी है.
साथ ही, यह सवाल भी है कि क्या पैसे के बल पर मतदाताओं को खरीदा जा सकता है? नागरिकों को अपने वोट का महत्व समझना चाहिए. एक पुरानी और स्थापित परिभाषा है कि लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा चलनेवाला शासन है. यानी, जन की भागीदारी के बिना जनतंत्र भी नहीं चल सकता. इसलिए मतदाताओं को अपने क्षेत्र व राष्ट्र के व्यापक हित को ध्यान में रख कर निर्णय लेना चाहिए. उन्हें अनैतिक तरीके अपनानेवाले लोगों से सावधान रहने की जरूरत है.
एक स्वस्थ लोकतंत्र में अनैतिकता और भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं है. अगर हम सतर्क नहीं रहे तो ऐसे चुनाव का क्या फायदा? हालांकि चुनाव आयोग ने धनबल के इस नाजायज खेल पर लगाम लगाने व वोटरों को दिग्भ्रमित करने से रोकने के लिए कई उपाय किये हैं, पर सवाल है कि क्या स्वस्थ जनतांत्रिक प्रणाली को कायम रखना सिर्फ आयोग की जिम्मेदारी है? क्या इसमें राजनीतिक दल व जनभागीदारी की जरूरत नहीं है? सवाल यह भी कि ऐन चुनाव के वक्त प्रत्याशियों को पानी की तरह पैसे बहाने की जरूरत क्यों पड़ती है? इस पर कोई भी आत्मचिंतन क्यों नहीं करता? अगर समय रहते अपने कार्यो से जनता का दिल जीत लिया जाये तो ऐसी नौबत नहीं आयेगी. आज चुनाव लड़ना शायद किसी भी आम और ईमानदार व्यक्ति के बस की बात नहीं रह गयी है.
राजनीतिक दलों के बीच दावं-पेच, रस्साकशी व राजनीतिक कटुता काफी बढ़ गयी है. सभी प्रत्याशी अपना सारा जोर विपक्षी उम्मीदवारों को कमजोर करने पर लगा रहे हैं, जो ठीक नहीं है. कहा जा रहा है कि पैसे के बल पर सरकारें चुनी जा रही है. इसके लिए दोषी कौन है? चुनाव आयोग की इस बात पर चिंता नहीं, चिंतन की जरूरत है.