मुद्दों के इर्द-गिर्द कब लड़ा जायेगा चुनाव!
।। उर्मिलेश ।। वरिष्ठ पत्रकार 2014 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ज्यादातर दल सिर्फ नेता और सत्ता का विकल्प सुझा रहे हैं, नीतियों का नहीं. दूसरी तरफ, एक बड़ा सच यह भी है कि नेताओं की घोषणाएं और दलों के घोषणापत्र आज गवर्नेस में बेमतलब होते जा रहे हैं. बीते सप्ताह देश की दो बड़ी […]
।। उर्मिलेश ।।
वरिष्ठ पत्रकार
2014 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ज्यादातर दल सिर्फ नेता और सत्ता का विकल्प सुझा रहे हैं, नीतियों का नहीं. दूसरी तरफ, एक बड़ा सच यह भी है कि नेताओं की घोषणाएं और दलों के घोषणापत्र आज गवर्नेस में बेमतलब होते जा रहे हैं.
बीते सप्ताह देश की दो बड़ी पार्टियों-कांग्रेस और भाजपा के शीर्ष नेताओं, क्रमश: राहुल गांधी और राजनाथ सिंह ने संवाददाताओं से बातचीत में चतुराई दिखायी, लेकिन मीडिया ने निराश किया. ऐसा लगा जैसे पत्रकार बड़े नेताओं से असुविधाजनक सवाल करने की आदत छोड़ते जा रहे हैं. टेलीविजन के लाइव प्रसारण और फिर दूसरे दिन की अखबारी खबरों में यह सब खुले तौर पर दिखा. राहुल 26 मार्च को अकबर रोड स्थित पार्टी मुख्यालय में प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के साथ अपनी पार्टी का घोषणापत्र जारी करने के बाद संवाददाताओं से बातचीत कर रहे थे.
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में देश की जनता को ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ देने का ऐलान किया. उसी दिन, भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लखनऊ में पत्रकारों से कहा कि वह गोमती की दुर्दशा से बेहद व्यथित हैं. लखनऊ से सांसद बन कर वह गोमती को निर्मल बनाएंगे.
इस दौरान राहुल गांधी से किसी ने यह सवाल नहीं किया कि आज जब देश की स्वास्थ्य सेवाओं का लगभग 80 फीसदी निजी क्षेत्र में है, तो जनता को ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ देने का क्या मतलब होगा, अधिकार-कानून का कैसे क्रियान्वयन होगा? निजीकरण के मौजूदा अंधड़ में शिक्षा के अधिकार कानून का क्या हश्र हुआ है? इसी तरह राजनाथ सिंह से किसी ने नहीं पूछा, जनाब, अच्छी बात है, आप गोमती नदी को निर्मल बनाने के लिए लखनऊ से चुनाव लड़ रहे हैं.
पर पांच साल गाजियाबाद से सांसद रहे, वहां की हिंडन नदी को निर्मल बनाने के लिए क्यों नहीं कुछ किया? जहां तक भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का सवाल है, वह तो सिर्फ उद्बोधन करते हैं, मीडिया या जनता के सवालों के लिए वह उपलब्ध ही कहां हैं? ऐसे में कौन पूछे कि उनके पास नीतिगत विकल्प क्या है?
ज्यादातर दल सिर्फ नेता और सत्ता का विकल्प सुझा रहे हैं, नीतियों का नहीं. दूसरी तरफ, एक बड़ा सच यह भी है कि नेताओं की घोषणाएं और दलों के घोषणापत्र आज गवर्नेस में बेमतलब होते जा रहे हैं. किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार अपने घोषणापत्र में दर्ज किये बगैर किसी खास मुद्दे पर कोई बड़ा नीतिगत बदलाव कर लेती है या बड़े निहित स्वार्थो के इशारे पर पहले से चली आ रही नीतियों को अचानक बदल देती है. मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ का फैसला हो या कुछेक क्षेत्रों में तेल-गैस और अन्य खनिजों के राज्य-स्वामित्व का चरित्र बदलने का फैसला, इनका घोषणापत्र में कहां कोई उल्लेख था? इस चुनाव में क्षेत्रीय सामाजिक-राजनीतिक संगठन और सिविल सोसाइटी के स्तर पर ऐसे बहुत सारे सवाल शिद्दत के साथ उठाये जा रहे हैं.
ऐसे दौर में जब देश का सबसे बड़ा मीडिया-घराना चुनाव के संदर्भ में पूरे दो पृष्ठों पर अपनी तरफ से ‘मैनिफेस्टीओइ’ पेश कर रहा है, जो बुनियादी तौर पर कॉरपोरेट और शहरी उच्चमध्य वर्ग की प्राथमिकताओं का दस्तावेज लगता है, वहीं ‘वादा न तोड़ो’ जैसे जन-अभियान ‘जन-घोषणापत्र-2014’ लेकर आ रहे हैं. इसी तरह, देश के 20 राज्यों में सक्रिय महिला संगठनों ने मिल कर हाल ही में ‘महिला आजादी का घोषणापत्र’ जारी किया. ‘एक्शन-एड’ द्वारा दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी में इन मुद्दों पर अभियान तेज करने की रणनीति पर विचार हुआ. दोनों घोषणापत्रों में देश की बहुसंख्य जनता के सवालों और सरोकारों को ज्यादा समझदारी-इमानदारी और संजीदगी के साथ उठाया गया है. जन मुक्ति परिषद की तरफ से नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल से बीस-बीस सवाल पूछे जा रहे हैं.
ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आर) और कई दलित-आदिवासी संगठन भी राजनीति-अर्थनीति और गवर्नेस के एजेंडे को लेकर क्षेत्रीय स्तर पर ठोस आवाज उठा रहे हैं. पीपुल्स फ्रंट ने ‘काम के अधिकार’ को मौलिक अधिकारों में शामिल करने का अभियान छेड़ा है. पर मीडिया, खास कर विजुअल मीडिया, चुनाव को कुछ शख्सियतों के इर्दगिर्द केंद्रित करने की बड़े दलों की योजना का जाने-अनजाने हिस्सा बना हुआ है. हालांकि अखबारों और चैनलों में कुछ शानदार अपवाद भी दिख रहे हैं.
चुनाव को कुछ खास शख्सियतों-सेलिब्रिटीज के इर्दगिर्द केंद्रित करने में सियासतदानों और सरमायदारों का भला है. दोनों चाहते हैं कि आम लोग नीतियों और मुद्दों पर बात न करें. इस पर उनका ही अधिकार रहे. अगर यह सवाल लोगों के विमर्श के दायरे में आ जायेंगे, तो गवर्नेस, खास कर सरकारों के नीति-निर्धारण और क्रियान्वयन की पूरी प्रक्रिया की जन-निगरानी शुरू हो जायेगी. बड़े दलों के बड़े राजनेता और कॉरपोरेट आम जनता को यह अधिकार नहीं देना चाहते.
जिन दलों ने अधिकार-आधारित कानूनों, यथा शिक्षा का अधिकार और अब 2014 के चुनाव घोषणापत्र में ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ जैसे कानूनों के जरिये समाज और संरचना को बदल डालने और अशिक्षा-गरीबी आदि मिटाने का दावा किया है, उनकी सरकारों के अपने ही आकड़े उनके दावों की पोल खोलते हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र का 80 फीसदी जहां निजी क्षेत्र में जा गिरा हो, वहां किसी गरीब व्यक्ति या परिवार को स्वास्थ्य का अधिकार कैसे मुहैया कराया जायेगा? क्या लगातार निजीकृत होते बीमा क्षेत्र के मकड़जाल के जरिये?
क्यूबा और चीन की बात छोड़िये, दुनिया के ज्यादातर पूंजीवादी मुल्कों का जायजा लें तो निजीकृत स्वास्थ्य सेवाओं का ऐसा खतरनाक तंत्र वहां भी नहीं खड़ा किया गया है, जैसा अपने देश में सन् 90-91 के बाद लगातार हो रहा है. एक अध्ययन के मुताबिक देश में लगभग 3.5 करोड़ लोग हर साल सिर्फ स्वास्थ्य कारणों से गरीबी रेखा के नीचे चले जा रहे हैं. वे गंभीर बीमारी के चलते निजी अस्पतालों या डॉक्टरों के पास जाने को विवश हैं. महंगी चिकित्सा और दवाओं के चलते उनकी माली-हालत अचानक खराब हो जाती है और हंसी-खुशी भरी उनकी गृहस्थी बदहाली के गर्त में डूब जाती है.
यही हाल शिक्षा का है. इन दोनों क्षेत्रों में पूर्व की एनडीए सरकार हो या आज की यूपीए सरकार, किसी ने भी बजटीय प्रावधान को अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से बढ़ाने का वायदा पूरा नहीं किया. क्या दोहरी शिक्षा प्रणाली और शिक्षा के लगातार होते निजीकरण को जारी रखते हुए ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ की कामयाबी सुनिश्चित की जा सकती है? क्या ये सवाल बेमतलब हैं? माफ कीजियेगा, नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज ने भी अपनी नयी पुस्तक ‘एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन्स’ (वर्ष 2013) में इन सवालों को देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के संदर्भ में महत्वपूर्ण माना है. सत्ता-राजनीति, कॉरपोरेट और मुख्यधारा-मीडिया में इन्हें तवज्जो कब मिलेगी? चुनाव इन मुद्दों के इर्दगिर्द कब लड़ा जायेगा?