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विरासत की बरबादी

‘हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी’- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता में गूंथी यह जिज्ञासा सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की ही नहीं, दुनिया के किसी भी कोने में उठ खड़ी होनेवाली राष्ट्रीयता का बुनियादी सवाल है. जैसे यादों के बिना व्यक्ति की कल्पना असंभव है, वैसे ही इतिहास के बगैर राष्ट्र […]

‘हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी’- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता में गूंथी यह जिज्ञासा सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की ही नहीं, दुनिया के किसी भी कोने में उठ खड़ी होनेवाली राष्ट्रीयता का बुनियादी सवाल है. जैसे यादों के बिना व्यक्ति की कल्पना असंभव है, वैसे ही इतिहास के बगैर राष्ट्र की संकल्पना. राष्ट्रीयता बनती है सामूहिक पहचान को आकार देनेवाली जातीय स्मृतियों से. इन स्मृतियों का भंडार यानी राष्ट्र का मानस जितना नदी, पहाड़, जंगल, खेत और लता-गुल्मों से बनता है, उतना ही राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास का पता देते भवनों, शिलालेखों और मंदिर-मसजिद-मकबरों से.

राष्ट्रीय मानस के किसी भी हिस्से को खोने का मतलब है राष्ट्रीय पहचान के एक हिस्से को खोना. अपने को दुनिया की सबसे गौरवशाली सभ्यताओं में शुमार करनेवाली भारतीय राष्ट्रीयता अपने पहचान के साथ यह आत्मघात बड़ी तेजी से कर रही है. जिस संस्था पर राष्ट्रीय पहचान की धरोहरों के रख-रखाव का जिम्मा है, वह इस आत्मघात को रोकने में खुद को विवश महसूस कर रही है. संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने राज्यसभा को सूचित किया है कि देश के कम-से-कम 24 ऐतिहासिक स्मारक अब सिर्फ किताबों के पन्नों में दर्ज हैं, जमीन से उनका वजूद मिट चुका है और इसकी वजह है बेतरतीब शहरीकरण. शहरीकरण ने जमीन की किल्लत से निबटने का नायाब नुस्खा यह निकाला है कि पहले स्मारकों को चारों तरफ से दुकान-बाजार और मकान से घेर लो और इस घेरेबंदी को इतना बढ़ाओ कि स्मारक का अस्तित्व ही मिट जाये. जिन ऐतिहासिक स्मारकों का वजूद खत्म हुआ है उनमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश के हैं. राज्य में मिर्जापुर के पास का हजार साल पुराना शिव मंदिर, बनारस के पास का एक प्राचीन बौद्ध-अवशेष और लखनऊ का असफी इमामबाड़ा अब किसी के लालच का शिकार हो इतिहास के चिह्न के रूप में अपने अस्तित्व को खोकर मकान-दुकान या बाजार में बदल गये हैं.

स्मारकों की बरबादी का यह सिलसिला देश के हर हिस्से में जारी है. पुरातत्व सर्वेक्षण इन स्मारकों की देखभाल करने में सक्षम नहीं है, क्योंकि अलग-अलग रंग-ढंग के भू-माफियाओं से निपटना न तो उसके कार्यक्षेत्र में आता है और न ही इस संबंध में उसे विशेष संस्थागत सहायता हासिल है. बेशक 1901 में देश की आबादी का 11 फीसदी हिस्सा शहरी था और सौ साल बाद बढ़ कर 31 फीसदी हो गया है, परंतु दोष सिर्फ इसी को क्यों देना? देश के इतिहास की रक्षा के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है.

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