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चीन से कैसे फायदा उठाये भारत
वरुण गांधी सांसद, लोकसभा fvg001@gmail.com पिछले हफ्ते मैं चीनी विश्वविद्यालयों के लेक्चर टूर पर था. उस दौरान सीमा तनाव बना हुआ था. चीनी छात्रों ने मुझसे शाक्यमुनि बुद्ध से लेकर आमिर खान तक के बारे में सवाल किये, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सीमा का सवाल कहीं नहीं आया. कूटनीति के मसले शायद ही कभी जनभावना […]
वरुण गांधी
सांसद, लोकसभा
fvg001@gmail.com
पिछले हफ्ते मैं चीनी विश्वविद्यालयों के लेक्चर टूर पर था. उस दौरान सीमा तनाव बना हुआ था. चीनी छात्रों ने मुझसे शाक्यमुनि बुद्ध से लेकर आमिर खान तक के बारे में सवाल किये, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सीमा का सवाल कहीं नहीं आया. कूटनीति के मसले शायद ही कभी जनभावना से प्रभावित होते हों, खास कर नयी उम्र के छात्रों की. लेकिन, भारत और चीन के रिश्ते सिर्फ ताजा इतिहास, युद्ध और सीमा-अतिक्रमण से निर्देशित नहीं होते, बल्कि इतिहास में भी इनकी जड़ें हैं. मैं यहां तीन ऐितहासिक किस्सों का जिक्र करना चाहूंगा.
यह कभी एक शांत सीमा नहीं थी
साल 1841 में सिख साम्राज्य के जनरल जोरावर सिंह कहलूरिया ने पांच हजार जवानों के साथ लद्दाख के रास्ते तिब्बत में प्रवेश किया और लद्दाख से नेपाल का अर्धचंद्र बनाते हुए गारटोक और तकलाकोट पहुंचे. तोयो के संग्राम में भारी नुकसान उठाने के बाद सेना लौटने लगी, तो किंग साम्राज्य की सेना ने पीछा शुरू किया और लद्दाख की तरफ बढ़ते हुए लेह पर घेरा डाल दिया. लेकिन जम्मू से मदद आ जाने के बाद चीनी सेना को खदेड़ दिया गया. बहुतों की सोच के विपरीत, स्वतंत्रता-पूर्व के इतिहास में भी भारत और चीन की सीमा पर हमेशा शांति नहीं थी.
सीमा पर ऐसी झड़पें यदा-कदा होती ही रहती थीं- सम्राट तांग ताइजोंगाप्पारेंटली ने 648 ईस्वी में मगध को दंडित करने के लिए वांग जुआंस के नेतृत्व में करीब आठ हजार सैनिकों की सेना भेजी थी. हिमालय के दोनों तरफ बसे दोनों देशों का एकांत वास्तव में एक ऐतिहासिक विसंगति है. कुछ वर्षों में सीमा अतिक्रमण की घटनाएं काफी बढ़ गयी हैं.
भारत की प्रतिक्रिया परखी गयी और आत्मसात कर ली गयी. भारत ने दिखा दिया है कि वह अडिग रहता है, और जरूरत पड़ने पर नरमी भी दिखा सकता है. दोनों देशों के बीच आग में घी डालने वाले मुद्दों की कमी नहीं है, जिसमें तिब्बत (एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत इससे कभी मुंह नहीं मोड़ सकता) भी हमेशा शामिल रहेगा. अगर ऐसे ही झड़पें चलती रहीं, तो सीमा विवाद को हल करने में दशकों लग जायेंगे. गतिरोध खत्म करने के लिए आमने-सामने बैठ कर बात करनी ही होगी. जहां हमारे हित साझा हैं, हमें अर्थपूर्ण सहयोग से पीछे नहीं हटना चाहिए. जलवायु परिवर्तन का सामना करने और पश्चिमी बाजारों में, खास कर सर्विस सेक्टर में, हिस्सेदारी बढ़ाने में हमारा लक्ष्य एक समान है.
व्यापार में अपना फायदा बढ़ाएं
साल 1403 में चीन में मिंग राजवंश के यांगले सम्राट जू दी ने जहाजों के एक बेड़े के निर्माण का आदेश दिया, जो एडमिरल जेंग ही के नेतृत्व में सात समुद्री यात्राओं पर गया. 1405 में पहली यात्रा में जहाजी बेड़ा चंपा, जावा, मलक्का, अरू, सीलोन, क्विलोन और कालीकट पहुंचा. साल 1407 में दूसरी यात्रा में जहाजी बेड़े ने कोचीन और कालीकट में लंगर डाला. ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) अब हकीकत बन रहा है.चीनी जहाज हिंद महासागर के प्रमुख देशों से गुजर रहे हैं, निवेश झोंक रहे हैं और व्यापारिक रिश्ते स्थापित कर रहे हैं.
हम्बनटोटा, पेनांग, कुंटन, कालीबारू और मलक्का जैसी जगहों पर बंदरगाहों में निवेश किये गये हैं, जबकि जिबूती और गवादर में नौसेना बेस बनाये जा रहे हैं. चीन ने भारत को ओबीओआर में शामिल किये जाने की पुरजोर कोशिशें कीं, यहां तक कि वह सीपीइसी का नाम बदलने को भी राजी था. भारत को बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार (बीसीआइएम) कॉरिडोर का इस्तेमाल व्यापार बढ़ाने के साथ ही उत्तर-पूर्व में रोजगार और बुनियादी ढांचा बढ़ाने के लिए करना चाहिए. हमें सावधानी से चीन के निवेश विकल्पों में से सही चुनाव करना चाहिए.
हमें मैन्युफैक्चरिंग क्षमता को बढ़ाने और रोजगार को सहारा देने के लिए औद्योगिक अर्थव्यवस्था में फॉक्सकॉन और बीवाइडी जैसी चीनी कंपनियों के निवेश को बढ़ावा देना होगा. उनके लिए हमारे बाजारों में प्रवेश को खुला रखना होगा, वह चाहे इलेक्ट्रॉनिक्स हो या ऑटोमोटिव.
हमें अगले पांच सालों में बुनियादी ढांचे में करीब 455 अरब डॉलर निवेश की जरूरत होगी- चीनी बैंक यह मदद मुहैया करा सकते हैं, बशर्ते उन्हें मनमाफिक मार्केट रेट मिले. ओबीओआर (सीपीइसी की बात, तो छोड़ ही दीजिये) में शामिल होते समय भारत को पूरी संवेदनशीलता के साथ, सुरक्षा चिंताओं, व्यापार घाटे और सीमा अतिक्रमण के मुद्दे को ऊपर रखते हुए इनके हल पर बात करनी होगी. राष्ट्रीय सामर्थ्य निर्माण में चीनी फाइनेंस और विशेषज्ञता से हमें अच्छी बढ़त मिलेगी. इस लेन-देन का अर्थ राष्ट्रीय हितों की तिलांजलि देना नहीं है, बल्कि यह अपनी स्थिति को मजबूत बनाने तक इंतजार का दौर होगा.
सांस्कृतिक आदान-प्रदान
एक युवा चीनी भिक्षु जुआनजेंग 627 ईस्वी में भारत की यात्रा पर निकल पड़ा.यही जुआनजेंग भारत में व्हेनसांग के नाम से मशहूर है. उसकी यात्रा भारत और चीन की दोस्ती का सबसे यादगार अध्याय है, जो दुश्मनी के बीच दोस्ती का हाथ बढ़ाने को प्रोत्साहित करता है. चीन मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में विलक्षण है, जबकि भारत ने सर्विस सेक्टर पर आधारित अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है. हम व्यक्ति-दर-व्यक्ति संबंधों का विस्तार कर इसका फायदा उठा सकते हैं.
आसानी से कह देना कि भारत और चीन दोस्तों की तरह व्यवहार करेंगे, बहुत दूर की कौड़ी लगता है, लेकिन हम एक-एक कदम बढ़ाते हुए रिश्तों को स्थायी और फायदेमंद बना सकते हैं. हमें अपने रक्षा हितों के प्रति कठोर रहना चाहिए, लेकिन इससे साझीदारी की गुंजाइश तो खत्म नहीं हो जाती. भारत और चीन, दो प्राचीन सभ्यताओं वाले देश लंबे समय तक तनातनी के साथ नहीं रह सकते- 3.6 अरब लोगों के बीच का यह रिश्ता, एशिया और इससे भी आगे दुनिया का भाग्य तय करेगा.
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