नक्सलियों ने एक बार फिर चुनाव बहिष्कार का एलान किया है. इसके लिए कुछ इलाकों में एसएमएस भेजे जा रहे हैं. दरअसल नक्सलियों के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वे पहले भी नागरिकों को देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था से अलग-थलग करने के लिए इस तरह के एलान कर चुके हैं. खौफ पैदा करने के लिए हिंसक घटनाओं को भी अंजाम दिया है.
बिहार-झारखंड में चुनाव के दौरान हिंसा और हत्या का खेल खेला जाता रहा है. झारखंड के संताल में भी दाग लगे थे नक्सली चुनावी हिंसा के. पिछले चुनाव में 23 अप्रैल 2009 को नक्सलियों ने दुमका के काठीकुंड के आमगाछी में मतपेटी लेकर लौट रही पोल पार्टी पर हमला किया. इसमें एक चौकीदार शहीद हुआ था. आठ माह बाद, आठ दिसंबर 2009 को हुए विधानसभा चुनाव में शिकारीपाड़ा में रोड ओपनिंग पार्टी पर हमला हुआ. इसमें सीआरपीएफ के दो जवान शहीद हुए. उत्तरी बिहार में भी मतदान के दिन नक्सली हिंसा हुईं.
नक्सली यह दलील देते हैं कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनका विश्वास नहीं है, क्योंकि इसमें वैसे लोग और दल जुड़े हैं, जो पूंजीवादी और सामंती सोच के हैं. इसलिए वे चुनाव का बहिष्कार कर यह बताना चाहते हैं कि चुनाव में खड़े उम्मीदवार और पार्टियां जनता को कबूल नहीं हैं, लेकिन इस बार का बहिष्कार साबित करता है कि वे लोकतांत्रिक प्रणाली को वे मानते ही नहीं. इस बार पहली बार वोटरों को ‘नोटा’ का विकल्प इवीएम में मिलेगा. इसके जरिये वोटर अपने क्षेत्र के उम्मीदवारों को नापसंद कर सकते हैं. उनके मतों की गिनती भी होगी और उसका अलग रिकॉर्ड बनेगा. यह राइट टू रिफ्यूजल है. पिछले साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में 11.53 करोड़ मतदाताओं ने इसका इस्तेमाल किया है.
यह अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार(अनुच्छेद 19-1 ए ) का हिस्सा है, लेकिन हमारे देश के नक्सली संगठनों को नोटा भी कबूल नहीं है. दरअसल उन्हें डर है कि एक बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने के बाद लोग उनके प्रभाव से बाहर निकल जायेंगे. उन्हें यह भी डर है कि मतदान केंद्र के अंदर पहुंचे लोग नोटा के बटन दबाने की बजाय अपनी पसंद के उम्मीदवार को कहीं वोट न कर दें. इसलिए वे बहिष्कार की भी बात रहे हैं और हिंसा की तैयारी भी.