-प्रेम कुमार-
धारा 370 बोलते ही मस्तिष्क में उभर आता है जम्मू-कश्मीर, जुबान पर आ जाती है बीजेपी, नज़र आने लगते हैं सेकुलरवादी और टीवी पर झगड़ते बंटे हुए नेता. धारा 370 यानी जम्मू-कश्मीर के प्रताड़ित और विस्थापित हिंदू, धारा 370 से याद आने लगता है पाक अधिकृत कश्मीर, सियाचीन ग्लेशियर जैसे एकीकृत जम्मू-कश्मीर के कटे हुए हिस्से, जिन पर पड़ोसियों का कब्जा है. धारा 370 यानी कश्मीर विवाद में पाकिस्तान की ओर से उठाये जाते रहे आत्मनिर्णय के अधिकार की रट का अध्याय. धारा 370 यानी महाराजा हरि सिंह को दिए गये वचन के नाम पर उनकी ही आत्मा को घायल करते रहने का कानूनी प्रबंध. और, धारा 370 यानी जम्मू-कश्मीर में किसी और को नहीं बसने देने और डेमोग्राफी बदलने की कोशिश और इससे शेष हिंदुस्तान में मौजूद बेचैनी.
आत्मनिर्णय का अधिकार सिर्फ कश्मीर को क्यों ?
धारा 370 को खत्म करने की कोशिश को राजनीति कहा जाता रहा है, लेकिन इस धारा को बनाये रखने की जिद कहीं बड़ी राजनीति रही है. कहा जाता है कि जब धारा 370 हटाने की बात हो, तो जम्मू-कश्मीर को आत्मनिर्णय के अधिकार की भी बात होनी चाहिए. क्यों? क्या हिंदुस्तान का बंटवारा करते समय हिंदुस्तान के आत्मनिर्णय के अधिकार का सम्मान हुआ था? अगर हिंदुस्तान को यह अधिकार मिलता और बंटवारे के खिलाफ फैसला होता, तो क्या पाकिस्तान बनाने की कवायद रोक दी जाती? जम्मू-कश्मीर से राजतंत्र खत्म करने का निर्णय क्या आत्मनिर्णय नहीं था?
धारा 370 में हुए सारे बदलाव जम्मू-कश्मीर की विधानसभा की इच्छा से हुए हैं. इसे क्यों नहीं आत्मनिर्णय माना जाना चाहिए? केवल निहित स्वार्थ और भेदभावपूर्ण नीतियों पर चलने के लिए किसी को आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं दिया जा सकता. जम्मू-कश्मीर की हिंदू आबादी पर अत्याचार कैसे रुकेगा? उनके आत्मनिर्णय की बात क्यों नहीं की जाती? उनके पास तो पाकिस्तान में जाने का विकल्प भी नहीं था. अपने ही देश में कश्मीरी हिंदू शरणार्थी हो गये. सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या हिंदुस्तान को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जा सकता है कि वह केवल हिंदू देश के तौर पर अपनी किस्मत का फैसला करे या अविभाजित हिंदुस्तान का संकल्प ले या जम्मू-कश्मीर जैसे प्रदेशों को खुद से अलग नहीं होने देने का संकल्प ले? ऐसा न होना चाहिए और न हो सकता है. इसलिए धारा 370 को हटाने या बनाये रखने के सवाल को आत्मनिर्णय से जोड़ने की कोशिश भी गलत है. अगर हम आंखें और दिमाग खोलकर इसे समझें तो बात बिल्कुल समझ में आ जाएगी. समस्या धारा 370 नहीं है, समस्या है दो अलग-अलग सोच.
धारा 370 की कोख से निकली है बीजेपी
भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को धारा 370 का विरोध करते हुए हिरासत में लिया गया था और हिरासत में ही उनकी मौत हो गयी. वही भारतीय जनसंघ आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है. धारा 370 को हटाना बीजेपी के घोषणापत्र का हिस्सा है और यह पार्टी के जन्मगत मकसदों में से एक है. आप समझ सकते हैं कि धारा 370 में कितनी उर्वरता है जो भारतीय जनसंघ या बीजेपी जैसी पार्टी को जन्म देती है.
राजनीति का ‘देशभक्तिकरण’
जब-जब धारा 370 को हटाने की सुगबुगाहट होती है, देश भावुक होने लगता है. यह भावुकता इसके समर्थकों और विरोधियों दोनों में चरम पर होती है. कांग्रेस, कम्युनिस्ट, मध्यमार्गी पार्टियां सब जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय दलों के साथ एक सुर से धारा 370 को हटाने का विरोध करने लगती हैं. वहीं बीजेपी के लिए धारा 370 देश में यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू करने के मार्ग में बाधा है, जम्म-कश्मीर को बिना किसी शर्त के भारत का अभिन्न हिस्सा बना लेने का इरादा है, जो बीजेपी के मुताबिक देशभक्ति का तकाजा है. धारा 370 के समर्थन और विरोध पर राजनीति ने इस पूरे मसले का ‘देशभक्तिकरण’ कर दिया है.
राजा हरि सिंह के साथ विलय की शर्त नहीं, अनुपालन है धारा 370
जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के साथ जिस Instrument of Accession (IoA) पर भारत सरकार सहमत हुई थी और इसका भारत में विलय हुआ था, उसकी हिफाजत के लिए ही धारा 370 का प्रावधान किया गया. इसलिए यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि धारा 370 जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की अपने आप में कोई शर्त नहीं है, बल्कि अनुपालन है.दूसरी अहम बात ये है कि भारतीय संविधान के 21वें अध्याय में मौजूद इस धारा 370 को टेम्प्ररी, ट्रांजिशनल और विशेष प्रावधान के तौर पर अपनाया गया है. इसका मतलब है कि धारा 370 अस्थायी है और इसका अल्पकालिक उद्देश्य है.
तीसरी और सबसे अहम बात ये है कि जब देश के लिए संविधान सभा बन रही थी, तो राज्यों को भी ऐसा करने को कहा गया था. लेकिन, सौराष्ट्र यूनियन, त्रावणकोर-कोच्चि और मैसूर को छोड़कर कोई राज्य निश्चित समय में संविधान सभा नहीं बना सकी. 1949 में सभी राज्यों ने मिलकर बैठक में यह तय किया कि ऐसी संविधान सभा की जरूरत नहीं है और भारतीय संविधान सभा का संविधान ही सभी राज्यों में लागू होगा. मगर, जम्मू-कश्मीर की सरकार ने यह आग्रह किया कि Instrument of Accession को लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर के लिए अलग से संविधान बनाने की आवश्यकता होगी, जिसे माना जाये. उनकी बात रख ली गयी.
धारा 370 को चोट किसने पहुंचायी?
1951 में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का निर्माण हुआ. सबसे पहले इसने धारा 370 पर ही चोट की. इसे बदलने का काम किया. Instrument of Accession (IoA) के खिलाफ राजतंत्र खत्म करने की संस्तुति की. कहा कि राष्ट्रपति ‘जम्मू कश्मीर के महाराजा की सिफारिश पर’ के बजाय ‘सदर-ए-रियासत (जम्मू-कश्मीर की विधानसभा) की सिफारिश पर’ कहें. 12 जून 1952 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने इस पर सर्वसम्मति की मुहर लगा दी. इस राजनीतिक ‘सर्वसम्मति’ के लिए हिंदुओं की सहमति नहीं ली गयी. जम्मू प्रजा परिषद ने इसका विरोध किया और समूचे जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान लागू करने की मांग की. राजनीतिक बवाल मचा, तब जम्मू-कश्मीर सरकार और भारत सरकार के बीच सहमति से दिल्ली समझौता 1952 अस्तित्व में आया. कर्ण सिंह पहले सदर-ए-रियासत चुने गये. मगर, तब तक धारा 370 का सांप्रदायिक स्वरूप स्थापित हो चुका था. हालांकि दिल्ली समझौते से धारा 370 में ऐसे बदलाव भी हुए, जिससे जम्मू-कश्मीर पर केंद्र सरकार की पकड़ मजबूत हुई. संक्षेप में इस पर नज़र डालना जरूरी है.
दिल्ली समझौते के अहम बिंदु
– जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासियों को भारतीय नागरिकता प्रदान की गयी. उसी समय संविधान में धारा 35 ए जोड़ा गया, जिसने राज्य सरकार को स्थायी नगारिक की पहचान का आधार तय करने का हक दिया.
– भारतीय नागरिक को मिले मौलिक अधिकार भी जम्मू-कश्मीर के लोगों को दिए गये. जम्मू-कश्मीर की सरकार को आशंका वश हिरासत में लेने का अधिकार दिया गया.
– समूचा जम्मू-कश्मीर सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक क्षेत्र में आ गया.
– बाह्य आक्रमण की स्थिति में आपातकाल लगाने का अधिकार भी केन्द्र सरकार को दिया गया.
– कस्टम ड्यूटी वसूलने का जम्मू-कश्मीर का अधिकार खत्म हो गया और बाकी राज्यों की तरह ही वित्तीय संबंध भारत सरकार के साथ बहाल किए गये.
भावनात्मक मुद्दा बन गया है धारा 370
धारा 370 से छेड़छाड़ खुद कश्मीर की विधानसभा ने शुरू की थी. विधानसभा की संस्तुतियां राजतंत्र विरोधी होने के साथ-साथ वहां अल्पसंख्यक विरोधी भी थीं. लद्दाख के बौद्ध, जम्मू के हिंदू और देश भर में उन्हें मिले समर्थन और इस वजह से हुए राजनीतिक बवाल ने धारा 370 को भावनात्मक मुद्दा बना दिया. आज तक यह भावनात्मक मसला बना हुआ है.
भारत से जोड़े रखने का सूत्र भी रहा है धारा 370
सच ये भी है कि जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा बनाए रखने में धारा 370 कारगर रही है. लगातार संशोधनों के जरिये यहां लागू सदर-ए-रियासत और प्रधानमंत्री की व्यवस्था खत्म हुई. शेष भारतीयों को जम्मू-कश्मीर जाने के लिए आईकार्ड ले जाना जरूरी होता था. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत के बाद इसे भी खत्म कर दिया गया. खुद धारा 370 भी अल्पकालिक प्रावधान था, जिसे भी मकसद पूरा होने के बाद खत्म हो जाना चाहिए था, लेकिन इससे पहले ही जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का अस्तित्व मिट गया. और, धारा 370 भारतीय संविधान का अमिट हिस्सा बना हुआ है.
हिंदुओं पर जुल्म हुए, पर चुप रही जम्मू-कश्मीर विधानसभा
जम्मू-कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम और हिंदू राजा का विरोधाभास आज़ाद हिन्दुस्तान में तब और गहरा होता चला गया जब स्थानीय विधानसभा ने हिंदू राजतंत्र को मिटाने और अपने लिए खास व्यवस्था बचाए रखने की कोशिशें लगातार जारी रखीं. ये सारे बदलाव राजा हरि सिंह के साथ भारत सरकार के हुए समझौते के खिलाफ हुए और धारा 370 ऐसे प्रावधान के रूप में विकसित हुआ, जो जम्मू-कश्मीर में बहुसंख्यक मुसलमानों के हक की चिंत तो करता रहा, लेकिन अल्पसंख्यक हिंदुओं की प्रताड़ना पर खामोश रहा.
हिंदू विरोधी साबित हुआ जम्मू-कश्मीर का लोकतंत्र
धारा 370 ने पूरे देश में भावनात्मक टकराव की स्थिति को लगातार मजबूत किया है. एक स्थिति बनी, जब मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ‘लोकतांत्रिक’ फैसले लेकर अपने लिए विशेष प्रावधान करती रही, जबकि हिंदुओं से भेदभाव. वहीं, हिंदू बहुल भारतीय संसद ने कभी हिंदुओं के लिए या हिंदुओं पर अत्याचार रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया. जब बीजेपी ने यह सवाल उठाया कि मुसलमान अपने हितों के लिए विधानसभा का इस्तेमाल कर सकते हैं तो हिंदू संसद का इस्तेमाल क्यों न करें, तो देश के धर्मनिरपेक्ष कुनबे को यह नागवार गुजरा. इस तरह धारा 370 को हटाने और बनाये रखने का सवाल भी सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के खांचे में बंटता चला गया.
धारा 370 के लिए नहीं बना है जम्मू कश्मीर
जब कभी भी धारा 370 की बात होती है, इस बात को भुला दिया जाता है कि जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए धारा 370 बनी थी. जम्मू-कश्मीर की जनता धारा 370 के लिए पैदा नहीं हुई है. जो लोग धारा 370 को बचाये और बनाये रखने की बात कहते हैं क्या वे महाराजा हरि सिंह के साथ हुए Instrument of Accession को आज भी उसी रूप में लागू रहने देना चाहेंगे? धारा 370 अपरिवर्तनीय कभी रही ही नहीं. फिर, आगे भी इसमें बदलाव क्यों नहीं हो सकता, इस पर पुनर्विचार क्यों नहीं हो सकता?
धारा 370 को लचीला बनाना या खत्म करना वक्त की मांग
अगर धारा 370 को दो कौम के बीच भावनात्मक मुद्दा मानते हुए भी देखा जाये, तो हिंदुओं से भेदभाव खत्म करने की जरूरत का प्रावधान करते हुए इसमें व्यापक बदलाव किये जा सकते हैं. लेकिन ये तभी हो सकता है जब हम ये समझें कि हम धारा 370 को लचीला या खत्म इसलिए करना चाहते हैं ताकि जम्मू-कश्मीर को एक ऐसे राज्य के रूप में खड़ा किया जा सके, जो हिंदुस्तान का लघु रूप हो न कि पाकिस्तान का, जहां अल्पसंख्यक दूसरे दर्जे के नागरिक हैं. सवाल यही है कि अगर जम्मू-कश्मीर का मुस्लिम बहुल लोकतंत्र ऐसा नहीं चाहेगा, तो क्या ऐसे लोकतंत्र को हम हिंदुओं पर अत्याचार करने की इजाजत देते रहेंगे?
(21 साल से प्रिंट व टीवी पत्रकारिता में सक्रिय, prempu.kumar@gmail.com )