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प्रेमचंद जो कह गये
डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया ‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’ शीर्षक लेख में प्रेमचंद लिखते हैं- ‘हिंदू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिंदू संस्कृति है, […]
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’ शीर्षक लेख में प्रेमचंद लिखते हैं- ‘हिंदू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिंदू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति. अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं.’
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हिंदू-मुसलमानों के बीच उभरे मतभेद पर प्रेमचंद ने यह टिपण्णी की थी. यहां ‘आर्थिक संस्कृति’ का अभिप्राय जीवन की बुनियादी जरूरतों से है, उसको हासिल करने के लिए किये जानेवाले सम्मिलित संघर्षों से है, न कि मजहब या जाति के नाम पर एक-दूसरे से लड़ने की बात से है.
आज आर्थिक प्रक्रियाओं के साथ खास ‘जातीय पहचान’ का घोल तैयार हो गया है. ऐसे में दुनियाभर में कहीं भी कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तहों में मौजूद आर्थिक कुचक्र को समझने में प्रेमचंद हमारी मदद कर सकते हैं.
आज वैश्विक धरातल पर कुछ कट्टरतावादी इस्लामिक संगठन बाहरी शक्तियों के अपने संसाधनों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण के विरुद्ध हमलावर हैं. चूंकि उनके संगठन के विचार में ‘आइडेंटिटी’ है, इसलिए वे अपनी ‘आइडेंटिटी’ से बाहर दूसरों को दुश्मन मान बैठते हैं. तालिबान, अल-कायदा, आइएसआइएस ऐसे ही कुछ आतंकी संगठन हैं.
भारत का हिंदू राष्ट्रवाद भी अपने साथ आर्थिक निहितार्थ लेकर चलता है. इसे मदन कश्यप की ताजी कविता से समझ सकते हैं. यह कविता पिछले दिनों जुनैद नाम के एक मुसलिम युवक पर हुए हमलों की पृष्ठभूमि में लिखी गयी है- ‘न उसके पास कोई गाय थी/ न ही फ्रिज में मांस का कोई टुकड़ा/ फिर भी मारा गया, क्योंकि वह जुनैद था/ सारे तमाशबीन डरे हुए नहीं थे/ लेकिन चुप सब थे, क्योंकि वह जुनैद था/ डेढ़ करोड़ लोगों की रोजी छिन गयी थी/ पर लोग नौकरी नहीं जुनैद को तलाश रहे थे/ नौकरी नहीं मिली, जुनैद को मारो/ खाना/ नहीं खाया, जुनैद को मारो/ वादा झूठा निकला, जुनैद को मारो/ माल्या भाग गया, जुनैद को मारो/ अडाणी ने शांतिग्राम बसाया, जुनैद को मारो/ सारी समस्याओं का रामबाण समाधान था/ जुनैद को मारो.’
यह कविता कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उन खतरों की बात करती है, जिसमें व्यक्ति इस हद तक हिंसक हो जाता है कि वह अपने जीवन की बुनियादी जरूरतों के बजाय कोरी ‘आइडेंटिटी’ के ‘अहं’ को संतुष्ट करने में लग जाता है.
यहां ‘जुनैद’ प्रतीक है किसी भी समाज में अल्पसंख्यक समुदाय का, जो बहुसंख्यक आइडेंटिटी के सामने पिस जाता है. हिटलर ने बहुत पहले इसी तरह ‘नाजी आइडेंटिटी’ की बात करके दुनिया को विश्वयुद्ध में धकेल दिया था. उसका तर्क था कि जब तक यहूदी रहेंगे, तब तक नाजियों का अस्तित्व संकट में रहेगा. यानी अपने उत्थान के लिए अपने से अलग दिखनेवालों पर हमला.
वास्तविक शत्रु कौन है? वह जो हमसे अलग दिखता है, या वह जो हम पर शासन करता है? ‘कर्मभूमि’ में पठानिन अमरकांत से कहती है- ‘नाम के मुसलमान, नाम के हिंदू रह गये हैं. न कहीं सच्चा मुसलमान नजर आता है, न कहीं सच्चा हिंदू.’
प्रेमचंद गरीबी और अभावों में जी रहे भारत को जानते थे. यहां जीवन की मूलभूत जरूरतों के अभाव में लोग अपमानित होकर मरने को विवश हैं. किसान कर्ज से पिस रहे हैं. उनकी खेती और जमीन पर महाजनों-साहूकारों की नजर है. एक समुदाय ‘अछूत’ कह कर घृणित है. ऐसे में ‘हिंदू संस्कृति’ या ‘मुसलमान संस्कृति’ का झगड़ा क्यों?
प्रेमचंद अपने लेखन के माध्यम से धर्म, जाति और संस्कृति की संकीर्णता को तोड़ते रहे. उन्होंने ऐसे भारत की परिकल्पना की थी, जहां समरसता हो. वे जानते थे यह समरसता मौन स्वीकृति से संभव नहीं है. यह तभी संभव है, जब हमारे बीच मौजूद अंतर्विरोध तीखे सवालों और बहसों के जरिये निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचेंगे. प्रेमचंद विश्व साहित्य में उन लेखकों में से हैं, जो सवाल करने का साहस और उसकी जरूरत की बात करते हैं.
उनका सवाल सबसे था. राज्य सत्ता से था, धर्म सत्ता से था, समाज की व्यवस्था से था, लोगों से था. वे एक आलोचक थे, जो यह कहना चाहते थे कि मनुष्यता कोई अमूर्त चीज नहीं है, जो सिर्फ प्रेम, दया, दान और करुणा से सहज हासिल हो जाये. उनका कहना था कि मनुष्यता मूर्त है, जो फिलहाल तमाम सत्ताओं की बेड़ियों से जकड़ी हुई है. इन बेड़ियों को तोड़े बिना सहज भाव से मनुष्यता की बात करना संभव नहीं है.
प्रेमचंद का जन्म ही सत्ता से संघर्ष के रूप में हुआ था. पहले तो वे धनपत राय थे. प्रेमचंद ने विचार की दुनिया में इस बात को स्थापित किया कि साहित्य समाज में सत्ता के बहुरूपियों के चेहरे से नकाब उतारता है, न कि सत्ता के कसीदे गढ़ना उसका कर्म है.
पिछले वर्ष जब असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाना शुरू किया था, तब राजनीतिक दल साहित्यकारों को ‘राजनीति’ न करने की सलाह दे रहे थे. इस मुद्दे पर लेखकों को सार्वजनिक तौर पर अपमानित भी किया गया. आजाद भारत में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर लेखक प्रेमचंद की कही गयी उस बात को जाहिर कर रहे थे कि साहित्य देशभक्ति और राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है. यही बुनियादी विचार हैं, जो प्रेमचंद को हमारा पूर्वज बनाये हुए है.
साहित्य में यह अस्मिताओं के विमर्श का दौर है. हर विमर्शकार प्रेमचंद में अपना इमेज (छवि) खोजने की कोशिश कर रहा है. लेकिन, क्या प्रेमचंद की महत्ता इतने भर से घट या बढ़ जायेगी? एक तरफ आर्थिक प्रक्रियाओं में समान रूप से सबकी भागीदारी का सवाल है, तो वहीं दूसरी तरफ ‘पहचान’ या ‘आइडेंटिटी’ के नाम पर समुदाय विशेष पर हिंसक हमले हो रहे हैं, अौर साथ ही आर्थिक हितों का कुचक्र भी है. ऐसे में हामिद, जोखू, हल्कू, या निर्मला क्या ये सभी अपनी-अपनी कहानियों के अंदर बंद रहेंगे?
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