चिंता करना व्यर्थ है
संतोष उत्सुक टिप्पणीकार बड़े सरकारी अफसर से मिलने का समय नये एनजीओ के सदस्यों को मुश्किल से मिला. साहेब लोगों के दौरे ही खत्म नहीं होते. दूसरे, लाल बत्ती न होने के कारण परेशानी हो रही है, लोग पहचानते ही नहीं. कहीं भी जाकर दिमागी बत्ती जलानी पड़ती है, तब लोगों को दिखता है कि […]
संतोष उत्सुक
टिप्पणीकार
बड़े सरकारी अफसर से मिलने का समय नये एनजीओ के सदस्यों को मुश्किल से मिला. साहेब लोगों के दौरे ही खत्म नहीं होते. दूसरे, लाल बत्ती न होने के कारण परेशानी हो रही है, लोग पहचानते ही नहीं. कहीं भी जाकर दिमागी बत्ती जलानी पड़ती है, तब लोगों को दिखता है कि बड़े साहिब आये हैं. लंगड़ा कर चल रही सामाजिक (राजनीतिक) योजनाओं को ‘लागू’ करवाते-करवाते थक गये. नींद पूरी नहीं होती और सुबह दफ्तर जाना पड़ता है. इधर हजारों एनजीओ के ढेर पर नयी एनजीओ पैदा कर उसके अभिभावक मिलने पहुंच जाते हैं.
फिर ऐसा हुआ. कुछ वरिष्ठ जनों ने एनजीओ बनायी, ताकि शहर की बढ़ती समस्याओं के बारे प्रशासन का ध्यान नये ढंग से आकृष्ट किया जाये. एक दर्जन लोग सरकारी अधिकारी के सामने कुर्सियों पर सजे थे. अधिकारी अपने थके शरीर व उनींदी आखों से उनसे मुखातिब हुए. उनसे पत्र लिया और पढ़ते-पढ़ते यह कह कर ‘पल्ला’ झाड़ लिया कि यह काम म्युनिसिपल कमेटी का है. पूछने लगे, आप सब रिटायर्ड हो?
रिटायर्ड लोगों ने कहा वे रिटायर्ड हैं, पर टायर्ड नहीं हैं. अफसर के कहने का असली मतलब था कि अब तो आराम से घर बैठो, क्यों फालतू के एनजीओ बना कर हमारा समय नष्ट करते हो. यह तो सभी को पता है कि ज्यादातर एनजीओ कितना ‘जबर्दस्त’ काम करते हैं. वरिष्ठजनों ने अफसर से गुजारिश की कि शहर की सफाई व्यवस्था व पार्किंग का हाल देखने वे किसी सुबह उनके साथ सैर के दौरान चलें.
बड़े आदमी ने मन ही मन कहा कि इन्हें नहीं बताना चाहिए कि वे रोज सुबह जाते हैं. शहर की हालत से उन्हें क्या लेना, वर्तमान पोस्टिंग पर समय आराम से निकल जाये, यही उनका उद्देश्य है. उनको लगा यदि हां कर दी, तो ये सठियाये शरीर, पिचके गाल व गंजे सिर वाले सुबह-सुबह दुखी करेंगे. उन्होनें कहा, मैं किसी को भेज कर चेक करवाता हूं.
नागरिकों ने शहर के प्रति प्यार जताते हुए फिर निवेदन किया कि हम चाहते हैं कि आपके साथ चलें. अपना काम नियमों के अनुसार करनेवाले सज्जन बोले, आप लोग बड़े एनरजेटिक हो, पर मैं खुद हो आउंगा. उनका आशय था कि आप यही एनर्जी घर पर चैनल देख कर, स्मार्ट फोन या सरकारी उजड़ते बाग में घूम कर खर्च करो.
सरकारी काम अपनी चाल से होते हैं, उनकी चाल-ढाल तो कोई बदल नहीं सकता. हां, खाल बदल जाती है. इन बारे बच्चों, नौजवानों व वरिष्ठ जनों को चिंता नहीं करनी चाहिए और फिर शहर के असली रक्षक तो भगवानजी ही हैं. वरिष्ठजन समझ गये कि हर सरकार, चिंता रहित पारंपरिक चाल से ही चलती है. बड़े दफ्तर से बाहर आकर सब एकमत से बोले, चलो यार कहीं बैठ कर अच्छी सी चाय तो पी लें.