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मोबाइल गेम छीन रहा है बचपन
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर पता नहीं कि आपने गौर किया कि नहीं, पिछले दिनों एक बेहद चिंताजनक खबर आयी. मुंबई में 14 साल के लड़के ने अपने घर की सातवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली. यह लड़का ऑनलाइन गेम ‘ब्लू व्हेल’ का एडिक्ट था और इसी गेम के प्रभाव में आकर […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
पता नहीं कि आपने गौर किया कि नहीं, पिछले दिनों एक बेहद चिंताजनक खबर आयी. मुंबई में 14 साल के लड़के ने अपने घर की सातवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली. यह लड़का ऑनलाइन गेम ‘ब्लू व्हेल’ का एडिक्ट था और इसी गेम के प्रभाव में आकर उसने आत्महत्या कर ली. भारत में आत्महत्या की यह अपनी तरह की पहली घटना है.
वह लड़का अंधेरी के एक नामी गिरामी स्कूल का छात्र था और 9वीं कक्षा का विद्यार्थी था. लड़के ने पहले छत पर चलते हुए सेल्फी ली और उसके बाद छत से नीचे छलांग लगा दी. मौके पर ही मौत हो गयी. बच्चा ऑललाइन गेम के कारण आत्महत्या कर ले, यह हम सभी के लिए खतरे की घंटी है.
ब्लू व्हेल गेम के बारे में जो खबरें छपीं हैं, वे चौंकाने वाली हैं. ब्लू व्हेल एक अंडरग्राउंड गेम है और इस गेम में खिलाड़ी को 50 टास्क दिये जाते हैं जिनमें से आखिरी टास्क आत्महत्या का होता है. गेम में देर रात अकेले कमरे में कोई डरावनी फिल्म देखना, हाथ पर ब्लेड से व्हेल की आकृति बनाना जैसे कई विचित्र टास्क शामिल होते हैं.
यह गेम युवाओं में लोकप्रिय है और पता नहीं कि इसमें कितनी सच्चाई है कि रूस में इस गेम के शिकार 100 से ज्यादा युवा हो चुके हैं. दुनिया में ऐसी अनेक कंपनियां हैं, जो केवल युवाओं के लिए गेम ही बनाती है. बच्चे दिन रात इन्हीं गेम में उलझे रहते हैं, बेगाने हो जाते हैं. इसमें बच्चों का कसूर नहीं, माता पिता भी दोषी हैं. मां बाप को लगता है कि वे बच्चों को संभालने के आसान तरीके सीख गये हैं. दो ढाई साल की उम्र के बच्चे को कहानी सुनाने की बजाय मोबाइल पकड़ा दिया जाता है और जल्द ही उन्हें इसकी लत लग जाती है.
हाल में दिल्ली में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया. सोलह साल के एक बच्चे में वीडियो गेम के एडिक्शन इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा. एडिक्शन के कारण यह बच्चा स्कूल में फिसड्डी होता जा रहा था. खेलकूद बंद होने और घर से बाहर न निकलने के कारण छह महीनों में इसका वजन लगभग 10 किलो बढ़ गया था.
साथ ही यह बच्चा आक्रामक हो गया था. जब बच्चे के मां पर भी आक्रामक होने की घटना सामने आयी, तो इसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा. यह घटना सभी माता पिता के लिए एक चेतावनी है, तत्काल बच्चों से संवाद स्थापित करें और मोबाइल को नियंत्रित करें अन्यथा परिस्थितियां हाथ से निकल जाने का खतरा है.
यह जान लीजिये कि टेक्नालॉजी दोतरफा तलवार है. एक ओर जहां यह वरदान है, तो दूसरी ओर मारक भी है. यह समस्या केवल भारत की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की है. सभी देश इससे जूझ रहे हैं. कई देशों ने इस दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिये हैं. अभिभावकों के दबाव के बाद इंटरनेट की जानी-मानी चीनी कंपनी टेनसेंट ने किंग ऑफ ग्लोरी जैसे अपने लोकप्रिय खेल के लिए समय निर्धारित कर दिया है.
12 साल से कम उम्र के बच्चे दिन में केवल एक घंटे तक लॉग इन कर पाते हैं. बड़े बच्चे केवल दो घंटे तक ही यह गेम खेल सकते हैं. साथ ही बच्चों के उम्र के दावे की जांच की भी पुख्ता व्यवस्था की गयी है. किंग ऑफ ग्लोरी का दावा है कि दुनियाभर में रोजाना लगभग 5 करोड़ युवा इसको खेलते हैं. बच्चों में इसकी लत पड़ने की शिकायतें लगातार सामने आ रही थीं.
ऐसी भी शिकायतें आयीं थीं कि बच्चों ने इस खेल के लिए चोरी से माता-पिता के क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल किया. बाद में जब लंबा चौड़ा बिल आया तो इसका पता लगा. दक्षिण कोरिया में तो रात 12 बजे से सुबह 6 बजे तक 16 साल से कम के बच्चों के ऑनलाइन खेल पर प्रतिबंध है. यह प्रतिबंध वर्ष 2011 से ही लागू है. जापान में तो जब बच्चे जरूरत से ज्यादा समय किसी गेम पर बिताते हैं तो कंप्यूटर पर अपने आप चेतावनी सामने आ जाती है. लेकिन भारत में अब तक इस दिशा में कोई विचार नहीं हुआ है.
थोड़ा करीब से देखें तो पायेंगे कि आज के बच्चे बदल चुके हैं. मोबाइल और इंटरनेट ने बच्चों का बचपन छीन लिया है. उन्हें टेक्नालॉजी का एडिक्शन होता जा रहा है. वे घर के किसी अंधेरे कमरे में हर वक्त मोबाइल अथवा कंप्यूटर में उलझे रहते हैं. उनकी बातचीत, आचार-व्यवहार सब बदल गया है.
वे बेगाने हो गये हैं. आपके बच्चे के सोने, पढ़ने के समय, हाव भाव और खानपान सब बदल चुका है. हम इसको ले कर आंखें मूंदे हैं. बच्चा देर रात तक जगता है. दाल रोटी और पराठे सब्जी के बजाय उसे मैगी, मोमो, बर्गर और पिज्जा प्रिय है. इसे स्वीकारना होगा. कुछ समय पहले मुझे प्रभात खबर के बचपन बचाओ अभियान के तहत बच्चों से संवाद का मौका मिला. मैंने पाया कि बच्चों में माता पिता को लेकर अविश्वास का भाव था.
अधिकांश बच्चे परिवार की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने सवाल उठाये कि माता-पिता उनकी तुलना दूसरे बच्चों से क्यों करते हैं, वे अपनी सोच बच्चों पर क्यों थोपते हैं, बच्चों पर हरदम शक क्यों किया जाता है. माता-पिता उनके कैरियर का फैसला क्यों करते हैं आदि आदि.
हमें समझना होगा कि यह व्हाट्सएप पीढ़ी है, यह बात नहीं करती, मैसेज भेजती है. लड़के लड़कियां दिन रात चैट करते रहते हैं. यह जान लीजिये कि टेक्नालॉजी की ताकत इतनी है कि उसके प्रभाव से कोई भी मुक्त नहीं रह सकता. आप चाहें कि बच्चों को इसकी हवा न लगे, तो यह भूल जाइये. मोबाइल तो उसे आपको देना ही होगा. दिक्कत यह है कि हम सब यह चाहते हैं कि देश में आधुनिक टेक्नालॉजी आये लेकिन उसके साथ किस तरह तारतम्य बिठाना है, इस पर कोई विचार नहीं करते.
हमें नयी परिस्थितियों से तालमेल बिठाने के विषय में सोचना होगा. बच्चा क्या कर रहा है, किस दिशा में जा रहा है, किस हद तक जा रहा है, इसका हमें पता रखना होगा. परिवर्तन पर आपका बस नहीं है. अब आप जितनी जल्दी हो सके नयी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठायें और ताकि बच्चों में अविश्वास का भाव न जगे और सबसे जरूरी है कि उनसे संवाद बना रहे.
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