मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
mrinal.pande@gmail.com
किसी सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात छेड़ी नहीं, कि अहिंदीभाषियों पर जबरन उत्तर की भाषा थोपे जाने, हिंदी पट्टी में भी हिंदी का कोई सर्वस्वीकार्य रूप न होने, हिंदी द्वारा जबरन इलाके की बोलियों को भाषा का दर्जा पाने से रोकने के आक्षेप टिड्डी दल की तरह गैर हिंदी मीडिया में छाने लगते हैं. यह रोचक है कि वहां इस वितंडे को महज गैर-हिंदी भाषा-भाषी साहित्यकार और नेता ही स्वर नहीं देते. प्रतिरोधी मुहिम में सबसे बुलंद आवाज हमेशा कुछ ख्यातिनामा अंगरेजी लेखकों की होती है.
भारत से जुड़े किसी भी पहलू पर प्रामाणिक किताबें लिखने के लिए हर तरह के शोधमूलक आंकड़े का संकलन भारतीय भाषाओं की मार्फत ही संभव बनता रहा है.
पर यह काम कराने को हमारे विद्वज्जन भारतीय बेरोजगारी के विशाल समुद्र से अपने काम लायक ऐसे सुंदर सस्ते और टिकाऊ युवा शोधकर्ता आसानी से पा लेते हैं, जो भारतीय भाषा में आवश्यक आंकड़ों का संकलन कर उसे अंगरेजी में अनूदित कर सकें. तदुपरांत वे उस सेकेंड हैंड डाटा को मथ कर विश्लेषण, व्याख्याएं और स्थापनाएं अंगरेजी में ही देते हैं. क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि जब बाहरी विद्वानों के ग्रंथ मूल में पढ़ने के लिए वे अनेक दुरूह युरोपीय भाषाएं सीख लेते हैं, तब गांव-गांव भेजे गये अपने शोधार्थियों से निकलवाये भारतीय भाषाओं में उपलब्ध डाटा को समझने के लिए हिंदी या कोई अन्य भारतीय भाषा सीखना उनके लिए आवश्यक क्यों नहीं लगता?
यह सही है कि बिना अहिंदीभाषी क्षेत्र की चिंताओं का तसल्लीबख्श तरीके से समाधान किये, सारे सार्वजनिक नामपट्ट और सरकारी विमर्श हिंदी में ही करने का सरकार का ताजा आग्रह या भाजपा के कुछ शाखामृगों की, ‘हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बना कर रहेंगे’, नुमा उग्र तहरीरें हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ने की बजाय घटा रही हैं.
ठंडे तर्क के आधार पर हिंदी की तुलना में शेष भारतीय भाषाएं अपनी स्थानीय पैठ व उत्कृष्टता के बावजूद क्षेत्र विशेष में सीमित साबित होती हैं, जबकि हिंदी देश के ग्यारह राज्यों को मापती है और हिंदी क्षेत्र के बाहर सबसे अधिक (अंगरेजी से चार पांच गुना) भारतीयों की मातृभाषा या दूसरी तीसरी भाषा बन चुकी है. दूसरी भारतीय भाषाओं के बीच सेतु बनाने और गहरे शोध से बने ज्ञान के नये से नये रूप को भी छोटे शहरों और गांवों तक पहुंचाने के लिए जिस तरह हिंदी की उपादेयता पर शंका उठाना बेवकूफी है, उसी तरह हिंदी विषयक सार्थक तर्क बिना सामने लाये अन्य भाषा भाषियों के सामने सरकारी दबंगई से उसे राष्ट्रभाषा कह कर झुकाना भी है.
भाषा या शब्द राजा, राजनेता, विद्वान या वैयाकरणाचार्य नहीं बनाते, यह पाणिनि व यास्क ने भी बार-बार कहा है. मानक भाषा के मसले पर ईमानदार संवाद यह भी जाहिर करेगा कि शब्द तबीयतन घुमक्कड़ और दोस्तबाश होते हैं और निरंतर अन्य भाषाओं से शब्द आकृष्ट करना उनकी फितरत है. जब मध्ययुग में भक्ति की धारा दक्षिण से बह कर उत्तर आयी, तो काशी के पंडित उसे डंडा लेकर मारने नहीं दौड़े थे.
उस काव्य के बीच समाहित शब्दों-भावना ने उनको ऐसी गहराई से छुआ कि वह धारा कुछ सदी तक उत्तर भारत की भाषा में रची बसी और उत्तर से दक्षिण तक उलट कर जा बही. तब से दक्षिण में भी तुलसी, मीरा, सूर कबीर के पदों के पाठ का आस्वाद सहज लिया जाता रहा है, उन पर कोई भाषाई दंगे नहीं हुए.
शुद्धीकरण के आग्रहियों को भी हम बता दें कि धर्म-संस्कृति के झगड़ों से परे राज्यों की सरहदों के आर-पार आप्रवासन, मनोरंजन के प्रकारों और व्यापारिक लेन-देन, मुद्रा विनिमय और भुगतान आदि के जरिये हिंदी का एक सहज जनग्राह्य रूप बनता रहा है.
उसमें सदियों से रचे बसे उर्दू, फारसी, पुर्तगाली, अंगरेजी के शब्द भी अब तक व्याकरण की भट्टी में पिघल कर ही देसी रूप में हर कहीं ग्राह्य बने. प्रपंच न बाजार में हुआ, न राज दरबार में. सारा लफड़ा राजनीतिक है. मुगलकाल में भी हरम और जनसामान्य के घरों में वही भाषा बोली जाती रही, जिसे हम हिंदी और उर्दूवाले उर्दू कहते हैं.
शुरू में उर्दू शब्द भाषा वाचक नहीं, स्थानवाचक था और अक्सर उसे बाहरियों द्वारा हिंदवी भी कहा जाता था. 19वीं सदी के अंत तक हिंदी-उर्दू के कवित्त और सांगीतिक बंदिशें दोनों ब्रज या अवधी भाषा के दीजै, कीजै, लिहिन, किहिन और उमग्यो, बरस्यो सरीखे क्रियापद इस्तेमाल करते थे और हिंदी-उर्दू के सहज मेल-जोल से रेख्ता जन्मी और फारसी की भी एक नयी शैली ‘सुबक-ए-हिंदी’ बनी. आज लोगों ने प्रेमचंद के आगे पढ़ा होता, तो वे गुलेरी जी से जान चुके होते कि किस तरह 19वीं सदी की साहित्यिक हिंदी घर-घर बोली जानेवाली ‘पड़ी’ हिंदी (ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि) और खड़ी (उर्दू भाषी इलाके से गहरे से जुड़े सहारनपुर, आगरा, दिल्ली, मेरठ समेत सारे पश्चिमी अंचल में इस्तेमाल हो रही) हिंदी का संयुक्त रूप बन कर उभरी थी.
इक्कीसवीं सदी में फिर से प्रतिगामिता बढ़ी है और पंथनिरपेक्ष दृष्टि को आज चुनौती मिल रही है. अब अंगरेज भले न हों, उनके नये भक्त जनता के डर का समाधान किये बिना, बौद्धिक समाधान खोज रहे हैं. क्या हम विगत से कुछ न सीखने को अभिशप्त हैं?