राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के रिश्ते

अनुराग चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार delhi@prabhatkhabar.in भारतीय संविधान को उसके लिखित होने के अलावा कई कारणों से जाना जाता है. केंद्र-राज्य संबंध, अधिकारों का बंटवारा और राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के अधिकारों-जिम्मेदारियों की स्पष्टता. फिर भी राष्ट्रपति भवन की ऊंची दीवारों के भीतर से असहमति की आवाजें कभी धीमे स्वर में तो कभी संवैधानिक दायरे में उठती रही हैं. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 8, 2017 6:17 AM
अनुराग चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
delhi@prabhatkhabar.in
भारतीय संविधान को उसके लिखित होने के अलावा कई कारणों से जाना जाता है. केंद्र-राज्य संबंध, अधिकारों का बंटवारा और राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के अधिकारों-जिम्मेदारियों की स्पष्टता. फिर भी राष्ट्रपति भवन की ऊंची दीवारों के भीतर से असहमति की आवाजें कभी धीमे स्वर में तो कभी संवैधानिक दायरे में उठती रही हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संबंधों को एक नयी हवा और प्रगाढ़ संबंधों को परिपक्व होते लोकतंत्र में दो विरोधी विचारधाराओं के राजपुरुषों के मधुर रिश्तों के रूप में देखा जाना चाहिए.
प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार बना कर राष्ट्रपति भवन में भेजा था. वे नेहरू विचारधारा में पले-बढ़ेऔर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के काल में बड़ी जिम्मेदारियाें को संभालते रहे और कई बार प्रधानमंत्री बनते-बनते भी रह गये. मुखर्जी अपने ज्ञान, अनुभव और समझ के लिए जाने जाते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें उनके राष्ट्रपति पद के अंतिम दिन एक मार्मिक पत्र लिखा, जिसमें प्रधानमंत्री को एक नयी भूमिका में देखा है.
मोदी लिखते हैं, ‘प्रणब दा, आप हमेशा मेरे लिए पिता समान और मार्गदर्शक रहे. मेरा काम बड़ा और चुनौतीपूर्ण था. इस दौरान आप मेरे पिता के समान और मार्गदर्शक रहे. आपकी बुद्धिमानी, मार्गदर्शन और स्नेह ने मुझे काफी विश्वास और शक्ति दी. आप मेरे प्रति काफी स्नेही और मेरा ध्यान रखनेवाले रहे. आप जब यह पूछते हुए फोन करते थे कि मैं उम्मीद करता हूं आप अपने स्वास्थ्य का ख्याल रख रहे होंगे. मुझे दिन भर चली बैठकों और प्रचार यात्रा के बाद नयी ऊर्जा देने के लिए काफी था.’
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के इन रिश्तों के माधुर्य को क्या दो विवेकवान राजपुरुषों की भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा और उनमें निहित जिम्मेदारियों के रूप में देखा जाना चाहिए, या क्या यह मान लेना चाहिए कि अब भारतीय तंत्र में राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के विवाद असहमति अतीत की बात हो गयी है. याद करें, नेहरू और राजेंद्र प्रसाद का हिंदू कोड बिल पर सामने आये मतभेद. इंदिरा गांधी द्वारा अपनी पसंद का राष्ट्रपति वीवी गिरी के चुनाव के वक्त नीलम संजीव रेड्डी के पार्टी द्वारा मनोनीत होने के बाद विरोध कर गिरी को विजयी बनाना और ‘अंतरात्मा की आवाज’ का सिद्धांत गढ़ना.
अटल बिहारी वाजपेयी के काल में राष्ट्रपति कलाम ने फांसी की सजा पर एक तरह से रोक ही लगा दी थी और भारत फांसी की सजा के खिलाफ है, यह संदेश देश-दुनिया में गया. राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के विचार दो ध्रुवों की तरह अलग-अलग होते हैं, यह बात गलत साबित हुई. राष्ट्रपति ने असहिष्णुता और असहमति को लेकर भी खुल कर बोला और सरकार को बार-बार अध्यादेश लाने के खिलाफ भी ताकीद की, पर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच कभी कटुता न तो आयी, न सार्वजनिक हुई. संवैधानिक संस्था का सम्मान दोनों को ही करना होता है. ऐसे में हमें प्रधानमंत्री का पत्र पढ़ना होगा, जिसमें उन्होने राजनीतिक ईमानदारी से अपनी बात कही है.
‘प्रणब दा, हमारी राजनीतिक यात्रा को अलग-अलग राजनीतिक दलों में गति मिली. हमारी विचारधाराएं अलग-अलग हैं, हमारे अनुभव भी अलग रहे हैं. मेरे प्रशासनिक अनुभव मेरे राज्य के हैं, जबकि आपने दशकों से हमारी राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था और राजनीति को बढ़ते हुए देखा है. आप के विवेक और आपकी बुद्धिमानी की यह शक्ति है, जो हम तालमेल से कार्य कर सके.’
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री में तालमेल जरूरी है. वैसे ही मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच भी तालमेल जरूरी है. राज्य में कानून व्यवस्था बनी रहे, विधानसभा में बहुमत विधानसभा में तय हो, राजभवन में नहीं. बोम्मई केस, जिसे सुप्रीम कोर्ट की सबसे बड़ी नजीर मानी जाती है, कहता है कि राज्यपाल को सरकार बनाने के लिए सबसे बड़े दल या चुनाव के पूर्व बने गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाना चाहिए.
लेकिन, राज्यपाल के पदों पर सेवानिवृत्त राजनेताओं की नियुक्ति कांग्रेस के कार्यकाल से प्रारंभ हुई है और जिसे भाजपा भी पालन कर रही है. और एक निष्ठा बनाम संवैधानिक जिम्मेदारी में उलझ गयी है. इस समीकरण को प्रणब मुखर्जी और नरेंद्र मोदी ने आपसी समझ और नये रिश्तों को सुलझा लिया. क्या ममता बनर्जी और केशरीनाथ त्रिपाठी एक ‘नयी समझ’ पैदा नहीं कर सकते, जहां मुख्यमंत्री को हमेशा यह भय न लगा रहे कि राज्यपाल केंद्र के एजेंट हैं और उन्हें शासन करने में बाधा डालेंगे. हाल ही में बशीरहाट कांड में जब राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को फोन पर कानून-व्यवस्था के बारे में जानकारीचाही, तो मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वे पार्टी प्रतिनिधि के रूप में हमें धमका रहे थे, वे पक्षपाती हैं.
क्या राज्यपाल और मुख्यमंत्री इस नये माहौल में अपने संवैधानिक रिश्तों को नये रूप में परिभाषित नहीं कर सकते हैं. ऐसी कोशिश बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जरूर की, जब उन्होंने बिहार के भूतपूर्व राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति कोविंद के चुनाव के वक्त राज्यपाल को समर्थन किया, बिहार की ‘बेटी’ मीरा कुमार को नहीं.
प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति के रिश्ते, राज्यपाल-मुख्यमंत्री के रिश्ते संविधान में बताये गये हैं, लेकिन इन रिश्तों के बीच बार-बार दरार आती दिखायी देती है. लेकिन, क्या रिश्तों का कड़ुवापन अब अतीत की बात हो गयी है? क्या नये प्रतिमान बन रहे हैं? क्या यह एक ‘भावुक’ प्रधानमंत्री की पाती है? ये सवाल नयी व्याख्या चाहते हैं.
पत्र के अंत में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति की इस बात के लिए प्रशंसा की है कि अब राष्ट्रपति भवन युवाओं के नवोन्वेष और प्रतिभा को पहचानने के लिए खोल दिया गया है.
राष्ट्रपति को उस पीढ़ी का भी बताया, जो बिना किसी स्वार्थ की सेवा करता है. उन्हें प्रेरणा का स्रोत बताया. ‘भारत को हमेशा आप पर गर्व रहेगा, आपकी विरासत हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी.’ हर किसी को साथ लेकर चलने की मुखर्जी की दृष्टि को नरेंद्र मोदी ने दूरदृष्टि बताया. और अंत में लिखा, ‘राष्ट्रपति जी, प्रधानमंत्री के रूप में आपके साथ काम करना गौरव था.’
यह गौरव केवल शाब्दिक या अलंकारिक नहीं रह जाये. इस रिश्ते को संवैधानिक पवित्रता देनी बहुत जरूरी है. यह रिश्तों का माधुर्य है, इस माधुर्य की महक सभी संवैधानिक पदों पर दिखेगी, तो एक नयी शुरुआत दिखायी देगी.

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