-प्रेम कुमार-
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की हीरक जयंती वर्ष है. प्रेरणा उत्सव की शुरुआत हो चुकी है. संसद भवन में राजनीतिक चिंतन से आगाज़ हुआ है. स्पीकर सुमित्रा महाजन ने ‘भारत छोड़ो’ से तुकबंदी करते हुए ‘भारत जोड़ो’ आंदोलन का ऐलान किया है. वहीं प्रधान सेवक ने ‘करो या मरो’ से तुकबंदी जोड़ते हुए ‘करेंगे और करके रहेंगे’ का नारा दिया है. ‘नारा’ शब्द से परहेज करना यहां जरूरी है क्योंकि नारों से जनता जुड़ी रहती है. ‘संकल्प’ बोल लेते हैं. प्रधानसेवक ने भी इस संदर्भ में इस शब्द का इस्तेमाल किया है. उन्होंने ‘सिद्धि’ शब्द का भी इस्तेमाल किया है. 9 अगस्त 1942 को ‘संकल्प’ और 15 अगस्त 1947 को ‘सिद्धि’. इसी तर्ज पर ये 5 साल का खुद को कष्ट में रखने का कार्यक्रम प्रधानसेवक ने देश के सामने रखा है.
जितना हम कष्ट करेंगे, अभीष्ट फल उतना ही मीठा होगा. हम कष्ट करेंगे, और करके रहेंगे. 9 अगस्त 2017 के लिए यह संकल्प हो गया ‘करेंगे और करके रहेंगे’ और 15 अगस्त 2022 को मिल जाएगी हमें ‘सिद्धि’. वन डे…मातरम् होगा. तत्पश्चात् राष्ट्रगान…नहीं हम ‘महाराष्ट्रगान’ गाएंगे. आधी रात का जश्न भी होगा. पुराना ध्वज उतारा जाएगा, नया लहराया जाएगा. रंग बाद में तय कर लेंगे.
9 अगस्त 1942 में जो लोग पीछे रह गये थे ‘संकल्प’ लेने में, उनका खास ध्यान रखा जाएगा.
सिद्धि का लाभ उनको ज्यादा मिले, मौका ज्यादा मिले- ये जरूरी है. तब जिन लोगों ने ‘संकल्प’ और ‘सिद्धि’ का खेल खेला था, उन्होंने साजिश की थी. गांधीजी तो बहुत अच्छे थे. जेल चले गये. लेकिन, जो लोग बाहर स्वत: स्फूर्त तरीके से गांधीजी के अहिंसात्माक आंदोलन को हिंसा का रूप दे रहे थे, उन लोगों ने ऐसे बहुत सारे लोगों को इस सिद्धि से दूर कर दिया, जो राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान नहीं होने देना चाहते थे, सरकार के साथ थे, देशभक्त थे, बगावत नहीं करना चाहते थे और न घर-परिवार पर कोई सितम आने देना चाहते थे.
ऐसे लोगों की चिंता जेल जाने की स्थिति में अपने घर-परिवार का पेट चलाने की भी थी. उन लाचार और मजबूर देशभक्तों की पीढ़ियां आज भी अवसर की तलाश कर रही हैं कि किस तरह राष्ट्र की मुख्य धारा में अपने कर्त्तव्य का निर्वहन कर सकें. ऐसे लोगों को आगे आने दीजिए. अगले पांच साल तक वे आगे बढ़कर संकल्प लेते रहेंगे- ‘कष्ट करेंगे और करके रहेंगे.‘ ये संकल्प सवा सौ करोड़ लोगों को प्रेरणा देगी कष्ट करने की, कष्ट सहने की. जिन लोगों ने सन् 1942 में ‘करो या मरो’ का संकल्प नहीं लिया था, वे लोग इस नये संकल्प से खुद को शुद्ध कर लेंगे.
मगर, जिन लोगों ने ‘करो या मरो’ में हिस्सा लिया था, उनके लिए क्या काम शेष है? क्या उन्हें मोक्ष मिल चुका है? अब उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है? सरकार तो ‘संकल्प’ लेती है और ‘सिद्धि’ सामूहिक प्रयास से मिलती है. किसी को कोई रोकटोक नहीं है. मगर, स्वतंत्रता सेनानी कहलाने वाले ‘सुविधाभोगी क्लास’ के लोग ‘कष्ट करेंगे, करके रहेंगे’ जैसे कठिन संकल्प के मार्ग पर चल सकेंगे, ऐसा नहीं लगता. लाल गुलामी वाले इस बार भी उसी तरह ‘बीमार’ लगते हैं. इसलिए ऐसा नहीं लगता कि वे भी इस संकल्प मार्ग पर चल पाएंगे. वे तो अब भी अंतरराष्ट्रीय स्थिति का मूल्यांकन कर रहे हैं. अगर चीन ने हमारे कष्ट को बढ़ा दिया, तो ये लोग चीन के साथ मिलकर हमारा कष्ट बढ़ा सकते हैं क्योंकि चीन को ये कष्ट में देखना नहीं चाहेंगे.
लक्ष्य बड़ा है. 5 साल तक कठिन तपस्या से गुजरना है. एक बात और है कि 1942 से 1947 के दौरान कहीं कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ था. सभी लोग मिलकर ‘करो या मरो’ में जुटे हुए थे. फुर्सत नहीं मिली थी. जब फुर्सत मिली, तो ‘विभाजन का दर्द’ नाम से सांप्रदायिक रोग या सांप्रदायिक हैजा हुआ था. बाद में सांप्रदायिक फिदायीन भी आ गया, जिसने ‘मरो’ को ‘मारो’ में बदल दिया और आज़ादी की राह दिखाने वाले मोहन दास करम चंद्र गांधी उर्फ महात्मा गांधी उर्फ बापू उर्फ राष्ट्रपिता को मौत की नींद सुला दिया.
2017 से आगे 2022 तक फुर्सत ही फुर्सत है. सांप्रदायिक रोग या सांप्रदायिक हैजा या सांप्रदायिक फिदायीन के लिए इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा. छिटपुट मिर्ची पटाखा पहले से फूट रहा है. अब इसे बम-धमाकों में बदलना बाकी है. राम मंदिर का मसला 1942-47 के बीच नहीं उठा. अब उठेगा. अयोध्या ही नहीं, काशी, मुथरा भी आज़ाद होगी. गरीबी, बेरोज़गारी, कुपोषण जैसी समस्या तब भी थी, आज भी है. गरीब-अमीर कभी मिट नहीं सकते. इसलिए हमें बस संकल्प लेना है और सिद्धि का इंतज़ार करना है. होईहें वही जो राम रचि राखा.