सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
सुदर्शन ने कभी ‘हार की जीत’ नामक कहानी लिखी थी, जो ज्यादातर लोगों को, और उनसे भी ज्यादा घोड़ों को, अब तक याद होगी, क्योंकि वह कहानी एक घोड़े की ही कहानी थी. कालांतर में बाबा भारती और उनके उस घोड़े के वंशज लोकतंत्र में व्याप्त अलोकतंत्र का फायदा उठाकर विधायकों के रूप में चुने जाने लगे.
डाकू खड़गसिंह ने भी नेताओं को जिताने में मदद करना छोड़ खुद नेता बन कर चुनाव का मैदान मार लिया. राजनीति में डाकुओं और बाबाओं का गठजोड़ बहुत कामयाब रहा और हर राजनीतिक दल डाकू और बाबा रखने लगा.
दूसरों के घोड़े छीनने का डाकू खड़गसिंह का शौक राजनीति में आने के बाद भी बरकरार रहा. इसके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद में से दाम और दंड का इस्तेमाल ज्यादा करता था और उनके बल पर दूसरों के घोड़े हथिया लेता था.
घोड़ों की खरीद-फरोख्त का व्यापार, जिसे ‘हॉर्स-ट्रेडिंग’ के पावन नाम से पुकारा जाता था, पहले से प्रचलित था, पर उसने अपने कौशल से इस व्यापार को कला का दर्जा दे दिया था.
जो घोड़े दाम से काबू में नहीं आते थे, उन पर वह अपने पालतू कुत्ते छोड़ देता था. वे पालतू कुत्ते पाले, तो अपराधियों पर छोड़े जाने के लिए गये थे, पर देश में अब कोई अपराधी बचा ही नहीं था, सबके सब नेता बन गये थे.
राजनीति में आते ही बड़े से बड़ा अपराधी भी देशभक्त बन जाता था. फिर वह जो कुछ भी करता था, सब देशभक्ति कहलाता था, भले ही देश को बेचने का काम ही क्यों न करे. कुत्तों के अलावा उसके पास एक खतरनाक तोता भी था, जो विरोधियों पर कुत्ते की तरह ही झपटता था. इस तरह एक-एक करके सबके घोड़े वह अपने अस्तबल में भरता जा रहा था.
लेकिन, बाबा भारती को उच्च सदन में न जाने देने की एक डील में वह गच्चा खा गया, जबकि उसे अच्छी तरह मालूम था कि गच्चा बीफ की तरह ही खाने की चीज नहीं है. इस डील में हालांकि बाबा भारती की हार पक्की थी, पर खरीदे हुए घोड़ों में से दो ने ऐन मौके पर अपनी वफादारी दिखाने के लिए उसकी तरफ देख कर हिनहिना दिया. यह लोकतंत्र-विरोधी गतिविधि थी, जिसके अनुसार घोड़े बिक तो सकते थे, पर समय से पहले अपने खरीदार की तरफ देख कर हिनहिना नहीं सकते थे.
इस कारण वे घोड़े किसी काम के न रहे और तकनीकी आधार पर बाबा भारती जीत गये. जीत डाकू खड़गसिंह भी गया, पर बाबा भारती की जीत की वजह से उसकी जीत भी हार में बदल गयी. इस पर कहते हैं कि डाकू खड़गसिंह ने बाबा भारती से एकांत में कहा, ‘बाबा, इस घटना का जिक्र किसी से न करना, वरना लोग राजनीति में धन-बल पर विश्वास करना छोड़ देंगे.’