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बुढ़ापे में ज्यादा देखभाल की जरूरत

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in मुमकिन है कि आपने यह ह्दयविदारक खबर पढ़ी हो. यह खबर किसी को भी झकझोर कर रख सकती है और समाज के लिए एक आईना है. यह खबर एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर भी इशारा करती है कि देश में वृद्धजनों की संख्या तेजी से बढ़ती जा […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
मुमकिन है कि आपने यह ह्दयविदारक खबर पढ़ी हो. यह खबर किसी को भी झकझोर कर रख सकती है और समाज के लिए एक आईना है. यह खबर एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर भी इशारा करती है कि देश में वृद्धजनों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और पुराना सामाजिक तानाबाना टूट चुका है. संयुक्त परिवारों का दौर गया और एकल परिवारों में मां-बाप के लिए स्थान नहीं है. इस कड़वी सच्चाई को हम सबको स्वीकारना होगा तभी समस्या का समाधान निकल सकता है.
घटना भी बयां कर दूं. मुंबई के ओशिवारा इलाके में आशा साहनी नामक बुजुर्ग महिला फ्लैट में अकेली रहती थी. पति की वर्ष 2013 में मौत हो गयी थी और बेटा सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और पिछले 20 वर्षो से अमेरिका में रह रहा है. जब वह मुंबई आया तो फ्लैट पर पहुंचा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. बहुत देर दरवाजा खटखटाने पर जब वह नहीं खुला तो दूसरी चाबी बनवाकर फ्लैट खोला गया. अंदर मां का कंकाल मिला. पुलिस का मानना है कि भूख और कमजोरी से महिला की मौत कुछ सप्ताह पहले हुई थी. मां बेटे के बीच अंतिम बार संवाद एक साल पहले अप्रैल, 2016 में हुआ था. महिला के पास धन की कमी नहीं थी. उनके नाम मुंबई में ही दो और फ्लैट थे जिनकी कीमत लगभग छह करोड़ बतायी जा रही है. उन्हें सिर्फ एक सहारे की जरूरत थी.
भारत की एक बड़ी आबादी बुजुर्ग हो रही है. समाज और सरकार की ओर से बुजुर्गों की देखभाल के लिए नयी पहल नहीं की गयी तो जल्द यह एक व्यापक समस्या के रूप में सामने आने वाली है. समाज का बुजुर्गों के साथ रूखा व्यवहार और उनकी अनदेखी और उन्हें बोझ की तरह माना जाना, यह समस्या का सबसे चिंताजनक पहलू है. ऐसा अनुमान है कि भारत में अभी छ: फीसदी आबादी 60 साल या उससे अधिक की है लेकिन 2050 तक बुजुर्गों की यह संख्या बढ़ कर 20 फीसदी तक होने का अनुमान है. अभी ही भारत में बुजुर्गों की संख्या के लिहाज से दुनिया में दूसरे नंबर पर हैं और भविष्य के अनुमान तो और चेताने वाले हैं.
दरअसल, जब भारत के ग्लोबलाइज होने का दौर शुरू हुआ था तो इसके असर के बारे में सोचा नहीं गया. अगर वैश्वीकरण के फायदे हैं तो नुकसान भी हैं. यह संभव नहीं है कि आप केवल विदेशी पूंजी की अनुमति दें और संस्कृति में कोई बदलाव न आये.
इसके पहले भारत में संयुक्त परिवार की व्यवस्था थी जिसमें बुजुर्ग परिवार के हिस्सा थे और उनकी देखभाल हो जाती थी. यह खंडित हो गयी. नयी व्यवस्था में परिवार एकल हो गये- पति पत्नी और बच्चे. परिवार के इस मॉडल में माता पिता का कोई स्थान नहीं हैं. यह पश्चिमी देशों का मॉडल है.
बीबीसी में नौकरी के दौरान मुझे लंदन में रहने का अवसर मिला. बीबीसी बेहद प्रतिष्ठित और उदार मीडिया संस्थान है. उस दौरान पूरे परिवार को लंदन जाने के लिए आश्रित वीजा और हवाई यात्रा का टिकट मिला तो मैंने कहा कि कि मेरी मां मुझ पर निर्भर है और मैं अकेला बेटा हूं, उन्हें भी आश्रित वीजा और यात्रा का टिकट चाहिए.
बीबीसी ने बताया कि पश्चिम के सभी देशों में परिवार की परिभाषा है- पति-पत्नी और 18 साल के कम उम्र के बच्चे. मां-बाप और 18 साल से अधिक उम्र के बच्चे परिवार का हिस्सा नहीं माने जाते. इसलिए मां आपके परिवार का हिस्सा नहीं है.
अगर आप गौर करें तो पायेंगे कि भारत में भी अनेक संस्थान और यहां तक हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियां भी परिवार की इसी परिभाषा पर काम करने लगे हैं. पश्चिम में कार भी उसे लिहाज से बनाते हैं जिसमें केवल चार लोगों के बैठने की जगह हो. ये छह लोगों के बैठने की गाड़ी भारत की जरूरतों के हिसाब से बनी है. सामाजिक व्यवस्था में आये इस बदलाव को हमने नोटिस नहीं किया है.
मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं कि जिनके दोनों बेटे अथवा बेटे बेटी दोनों विदेश में हैं और आर्थिक रूप से बुजुर्ग आत्मनिर्भर हैं. लेकिन वे एकाकीपन के शिकार हैं.
खासकर महानगरों में जब ऐसे बुजुर्ग गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं तो उनकी देखरेख की कोई व्यवस्था नहीं होती. ऐसा देखा गया है कि विदेशों में रह रहे भारतीय नवयुवक माता-पिता को बच्चों की परवरिश के लिए याद करते हैं. दरअसल इसका आर्थिक पक्ष है, विदेशों में बच्चे पालने की व्यवस्था बहुत महंगी होती है, इसलिए उन्हें याद किया जाता है. हालांकि इसमें कोई बुराई भी नहीं. नाती पोतों की दादाा-दादी या फिर नाना-नानी से बेहतर कौन देखभाल कर सकता है. एक तथ्य और सामने आया है कि मां-बाप में से मां तो एकल परिवारों में बहुत बार स्वीकार्य हो जाती है क्योंकि वह घर के कामकाज में हाथ बंटाती है, लेकिन पिता इस मॉडल में फिट नहीं बैठता.
पश्चिम के देशों में बुजुर्गों की देखभाल के लिए ओल्ड एज होम जैसी व्यवस्था हैं, लेकिन भारत में ऐसी कोई ठोस व्यवस्था नहीं है. दूसरे पश्चिमी देशों की आबादी भी कम है, छोटे देश हैं, वहां ऐसी व्यवस्था करना आसान है.
भारत जैसे बड़ी आबादी और बड़े भूभाग वाले देश में ऐसी व्यवस्था करना बेहद कठिन काम है. बुजुर्ग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हुए तो समस्या और जटिल हो जाती है. उम्र के इस पड़ाव पर स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ जाता है. संगठित क्षेत्र में काम करने वालों लोगों को तो पेंशन अथवा रिटायरमेंट के बाद की अन्य आर्थिक सुविधाएं मिल जाती हैं. हालांकि अब सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भी पेंशन की सुविधा खत्म होती जा रही है. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की स्थिति सबसे अधिक चिंताजनक है.
उन्हें इस तरह की कोई सुविधा हासिल नहीं होती. हालांकि केंद्र और राज्य सरकारें वृद्धावस्था पेंशन देती हैं लेकिन उसकी राशि इतनी कम है कि वह नाकाफी होती है. ग्रामीण विकास मंत्रालय वृद्धावस्था पेंशन योजना चलाता तो है, मगर यह सभी जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाती हैं. आगामी कुछ वर्षों में यह समस्या और गंभीर होती जायेगी और मुझे नहीं लगता कि इसका समाधान सरकारों के बस की बात है, इसमें सामाजिक संस्थाओं को जुटना होगा तभी कोई रास्ता निकल पायेगा.

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