आग और गुस्से ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा

अशोक कुमार पांडेय लेखक ashokk34@gmail.com जितनी खामोशी के साथ पिछले सात दशकों से साहित्य की दुनिया में वह उपस्थित थे, उतनी ही खामोशी से 15 अगस्त की सुबह चले गये अपनी अंतिम यात्रा पर. उनकी एक कविता है ‘बेटी के घर से लौटना’, जिसमें वह कहते हैं- ‘दुनिया में सबसे कठिन है शायद बेटी के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 17, 2017 6:29 AM
अशोक कुमार पांडेय
लेखक
ashokk34@gmail.com
जितनी खामोशी के साथ पिछले सात दशकों से साहित्य की दुनिया में वह उपस्थित थे, उतनी ही खामोशी से 15 अगस्त की सुबह चले गये अपनी अंतिम यात्रा पर. उनकी एक कविता है ‘बेटी के घर से लौटना’, जिसमें वह कहते हैं- ‘दुनिया में सबसे कठिन है शायद बेटी के घर से लौटना.’ इस बार अनुप्रिया दीदी के घर से वह लौटे नहीं, चले गये. क्या उन्हें नहीं पता होगा कितना कठिन होता है बेटियों के लिए पिता को विदा करना?
साल 2010 में मैंने उन पर लिखा था- ‘पचास के दशक के बिल्कुल अंतिम वर्षों से लिखना शुरू करनेवाले चंद्रकांत देवताले पिछले साठ-पैंसठ वर्षों में लगातार सक्रिय रहे हैं. हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हंस रहा है, भूखंड तप रहा है , रोशनी के मैदान की तरफ, आग हर चीज में बतायी गयी थी, पत्थर की बेंच, उसके सपने, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय, पत्थर फेंक रहा हूं मैं, जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा तथा आकाश की जात बता भइया जैसे कविता संकलनों के साथ उन्होंने 1987 में मराठी से दिलीप चित्रे की कविताओं का ‘पिसाटी का बुर्ज’ नाम से और अभी बिल्कुल हाल में संत तुकाराम के अभंगो का अनुवाद किया है तथा मुक्तिबोध पर एक समीक्षात्मक किताब ‘मुक्तिबोध: कविता और जीवन विवेक’ लिखी है.
लेकिन, इस सुदीर्घ सक्रियता और पर्याप्त पढ़े जाने के साथ-साथ उनके हिस्से का एक सच यह भी है कि हिंदी के सत्ता-प्रतिष्ठानों ने उन्हें कभी बहुत ज्यादा महत्व देने लायक कवि नहीं समझा. 1973 में पहचान सीरीज में छपे ‘हड्डियों में ज्वर’ की भूमिका में अशोक बाजपेयी का लिखा इस द्वैत का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण भी है और स्रोत भी. साहित्य अकादमी पुरस्कार न मिलना तो एक बात है, देवताले को अकसर अकविता का कवि, विचारधारा विहीन होने से लेकर न जाने क्या-क्या कहा जाता रहा.
उससे भी आगे उनके नाम पर एक चुप्पी साधने का रिवाज है. वीरेन डंगवाल अगर उन्हें परिधि का कवि कहते हैं, तो वह यूं ही नहीं. देवताले मध्य प्रदेश के भीतर और बाहर भी हमेशा परिधि के कवि रहे हैं. और परिधि पर होना उनका खुद का चयन है. सत्ता केंद्रों से उनकी दूरी जनता से उनकी जुदाई के समानुपात में ही बढ़ती चली गयी है. कवि हो जाना उनके लिए किसी विशिष्टताबोध से अधिक असुविधा है.’
साल 2012 में जब उनको साहित्य अकादमी सम्मान मिला, तो वह जैसे बासी हो गया था. देवताले जी पुरस्कारों से बहुत ऊपर जा चुके थे और पुरस्कार अपनी ऊंचाइयों से बहुत नीचे गिर चुके थे.
साल 2007 के सितंबर में जब भगत सिंह पर बोलने के लिए मैं उज्जैन गया था और उस आयोजन की अध्यक्षता देवताले जी ने की थी. मुझ जैसे युवा को देखकर वह चौंके और कुछ हंसी-मजाक किया, तो उस वक्त बहुत बुरा लगा था.
लेकिन भाषण खत्म होते-होते उन्होंने बिना किसी बुलावे की प्रतीक्षा किये जब माइक हाथ में लिया, तो समझ आया कि चुहल, भावुकता और अतिउत्साह उनके व्यवहार का अभिन्न हिस्सा था. उस शाम के बाद वह मेरे लिए उज्जैन के महाकाल थे, जिससे मिले बिना यात्रा अधूरी रह जाती है.
कुछ साल बाद पहले युवा द्वादश के विमोचन के अवसर पर सभा में उनको न पाकर हम सब उनके घर पहुंच गये. सैकड़ों तरह के फूलों और बीसियों कुत्तों से भरा उनका घर. ये विदेशी नस्ल के कुत्ते नहीं थे, सड़क के बेसहारा घायल कुत्ते थे, जिन्हें उन्होंने आसरा दिया और फिर वे उस घर के बाशिंदे हो गये. फिर उनके ठहाके, मजाक गूंजे और अचानक खाने के लिए पूछा. हमारे मना करने पर बोले, ‘नहीं खिलाया तो तुम्हारी ताई सपने में आकर डांटेगी मुझे.’
मालवा की सहजता का वे मूर्त रूप थे. बातें करते-करते जाने कहां-कहां भटक जाते. बचपन की यादों वाली नर्मदा सदा उनके करीब रही. शोषण-उत्पीड़न के प्रत्यक्ष अनुभव उनके लिए सिद्धांतों से घुल-मिलकर कविता ही नहीं, जीवन के भी हिस्से बन गये थे. प्रतिरोध उनका स्थाई स्वर था.
प्रमोद वर्मा का नाम देखकर चले गये छत्तीसगढ़ और वहां मन रहे हत्यारों के जश्न का खुला विरोध किया. लौटकर फोन किया- ‘मैंने घर में घुसने से पहले नर्मदा के पानी से खुद को पवित्र कर लिया है, गलियां मत देना मुझे.’ जब हमने कविता समय सम्मान दिया तो उन्होंने कहा- ‘बस दो सम्मान याद रहेंगे, पहल सम्मान और एक यह, क्योंकि ये मुझे अपनी बिरादरी से मिले हैं.’
उनका जाना सिर्फ एक बड़े कवि का जाना नहीं है, मुझ जैसे कितने कवियों के एक अभिभावक काजाना भी है. ऐसा अभिभावक, जो किसी भी वक्त फोन करके अच्छी कविता के लिए तारीफ कर सकता था, तो बुरी कविता के लिए अधिकार सहित डांट भी सकता था. हिंदी जगत में उनका होना एक ऐसी आवाज का होना था, जो कई बार आपको चुभ सकती थी, लेकिन हर बार अपनी ईमानदारी और प्रतिबद्धता के लिए आश्वस्त भी करती थी.

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