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बच्चों की मौत के गुनहगार

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया मशहूर शायर निदा फाजली कहते हैं- ‘घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो यूं कर लें / किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये.’ पाकिस्तान में किसी मुशायरे में निदा फाजली ने जब यह शेर कहा था, तो वहां कुछ कट्टरपंथियों ने हंगामा खड़ा कर […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
मशहूर शायर निदा फाजली कहते हैं- ‘घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो यूं कर लें / किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये.’ पाकिस्तान में किसी मुशायरे में निदा फाजली ने जब यह शेर कहा था, तो वहां कुछ कट्टरपंथियों ने हंगामा खड़ा कर दिया था कि बच्चे को अल्लाह से बड़ा बताया जा रहा है.
तब उन्होंने इतना ही कहा था कि मस्जिद इंसान के हाथ से बनते हैं, जबकि बच्चे को अल्लाह खुद अपने हाथ से बनाते हैं. यह शेर किसी शायर की भावुकता मात्र नहीं है, बल्कि यह एक अपील है किसी भी संवेदनशील समाज से अपने बच्चों के प्रति व्यवहार को लेकर. यह हमारी मनुष्यता की परख भी है.
आजादी के जश्न से ठीक पहले उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में एक- एक कर साठ से ज्यादा बच्चों की दर्दनाक मौत हो गयी. इस घटना से पूरे देश में मातम छा गया. यह दुर्भाग्य नहीं, बल्कि दुर्व्यवस्था है, जिसके तले हमारी आजादी सांस लेने को विवश है. जहां ऑक्सीजन नहीं है.
जिन घरों में मौत का साया उतरा उनके लिए अब क्या पंद्रह अगस्त और क्या आजादी का जश्न? बाबा नागार्जुन ने ऐसी ही वास्तविकताओं को देखकर कहा होगा- ‘किसकी जनवरी है, किसका अगस्त है / कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?’
यह महज एक आकस्मिक घटना नहीं थी, जिसके लिए खेद व्यक्त कर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाया जाये. दरअसल, यह देश की दुर्व्यवस्था का एक बड़ा उदहारण है. देश का आम नागरिक हर दिन इस तरह की घटना का शिकार है.
हम इतने संवेदनशून्य हो चुके हैं कि जब तक ‘नरसंहार’ जैसी कोई घटना नहीं घटती, हम हर घटना को नजरंदाज कर देते हैं कि ‘ऐसा तो होता ही रहता है.’ गोरखपुर कांड के बाद उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री का जो बयान आया, वह भी ठीक उसी तरह से नजरंदाज करने की एक कोशिश थी कि ‘अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं.’ एक संवेदनशील इंसान ऐसा कभी नहीं कह सकता. यह उपहास है और यह अश्लीलता है. सवाल यह होना चाहिए कि बच्चे क्यों मरते हैं? अगर बच्चे मरते हैं, तो उसकी जिम्मेदारी किसकी है?
क्या जन्म देने की वजह से उसके मां-बाप जिम्मेदार हैं, या वह व्यवस्था, जिसके अंतर्गत किसी बच्चे को कोई जन्म दे रहा है? हम सामाजिक प्राणी हैं. हमने अपने जीवन को बेहतर और सुखी संपन्न बनाने के लिए व्यवस्था निर्मित की है. हम उसके संचालन के लिए सरकार चुनते हैं. सरकारें हमसे विश्वास लेकर ही व्यवस्था का दायित्व संभालती हैं. नि:संदेह, प्राथमिक तौर पर हमारी सुरक्षा और सुविधाओं के लिए वही जिम्मेदार होती है. यह उसकी नैतिकता है. लेकिन, आमतौर पर घटना की जिम्मेदारी लेने के बजाय एक-दूसरे के दोष खोजे जाने लगते हैं.
गोरखपुर कांड के बाद जो राजनीतिक प्रतिक्रियाएं सामने आयीं, वे यह साबित करती हैं कि ‘पार्टी लाइन’ के आधार पर संसदीय राजनेताओं की संवेदना तय होती है. राज्य के मुख्यमंत्री के क्षेत्र में घटित होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ तत्काल अस्पताल का दौरा करने नहीं पहुंचे.
सब ओर से घिरती नजर आती भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस के शासनकाल में होनेवाली घटनाओं की याद दिलाकर ‘डैमेज कंट्रोल’ करने की कोशिश कर रहे थे. दूसरी ओर विपक्षी दल मुद्दे को भुनाने की कोशिश कर सत्तारूढ़ दल पर हमले कर रहे थे. सत्ता और विपक्ष की खींचतान के बीच हमारी वह व्यवस्था कैसी है, जिसमें कोई बच्चा जन्म लेता है?
अगर हम चिकित्सा व्यवस्था की ही बात करें, तो हमारे देश में उसकी स्थिति बदतर है. एक ओर देश में प्रशिक्षित डॉक्टरों की घोर कमी है, इसके साथ ही जनसंख्या के अनुपात में अस्पताल नहीं हैं. जो भी चिकित्सा केंद्र हैं, वहां दवाओं की सहज आपूर्ति नहीं है. बाजार में दवा कंपनियों का वर्चस्व है और उन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है. हमारे देश की जनता अपने इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर है.
लेकिन सरकारी अस्पताल बदहाल हैं. सरकारी अस्पतालों की बदहाली का उपाय निजीकरण में खोजा जा रहा है, जबकि निजीकरण जनता की लूट है. यानी हमारे लिए ठोस व्यवस्था की चिंता न सत्ता पक्ष के पास है, न ही विपक्ष के पास. िवडंबना की बात तो यह है कि सत्ता में पक्ष-विपक्ष बदलता रहता है, जबकि बदलना तो उस व्यवस्था को चाहिए, जिसके अधीन हमारी जिंदगी तबाह हो रही है.
‘पार्टी विद् डिफरेंस’ की बात करनेवाले इस घटना से नजरें चुरा रहे हैं. यह घटना यह भी बताती है कि जानवरों की राजनीति करनेवाले, कथित देशभक्ति का हौव्वा खड़ा करनेवाले व्यवस्था के ढांचागत बदलाव के प्रति न तो संवेदनशील हैं और न ही सक्रिय. जनता के बुनियादी सवालों को हल करने में ये भी पहले की सरकारों से ‘डिफरेंस’ यानि अलग नहीं हैं. आज भी वास्तविक जमीन पर आम जनता वैसे ही बेहाल है.
यूनिसेफ के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में बाल सुरक्षा और सुविधा की स्थिति बहुत खराब है. ऐसे में बच्चों को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत है.
ऑक्सीजन की कमी को लेकर उसके सप्लायर की गलती बताने का बहाना नहीं चलेगा. यह सिर्फ व्यवस्था की चूक का दुष्परिणाम नहीं है, बल्कि यह व्यवस्था की संरचनागत विसंगति का सवाल है. प्रशासनिक व्यवस्था की विसंगति और संवेदनहीनता का सहज शिकार हमारे बच्चे ही होते हैं. आये दिन ‘मिड मिल’ खाने से बच्चों के बीमार होने और मरने की खबरें मिलती रहती हैं. कुछ दिन चीख और चिल्लाहट होती है और फिर सब कुछ पहले की तरह छोड़ दिया जाता है.
गोरखपुर कांड आजादी की पूर्वसंध्या का रुदन है. अज्ञेय ने कहा था कि आजादी सिर्फ घटना नहीं होती, बल्कि यह प्रक्रिया होती है. यानि, 15 अगस्त, 1947 को मिली आजादी अगर एक ऐतिहासिक घटना है, तो वह घटना एक प्रक्रिया की तरह लगातार समाज के अंदर चलती रहनी चाहिए. शहीदों की कुर्बानियों के स्मरण और गौरव-गान के साथ वर्तमान की आलोचना ही वास्तविक आजादी को जन्म दे सकती है.
किसी भी प्रकार के राजनीतिक आडंबर के बजाय संवेदनशीलता के साथ आत्मालोचन करते हुए आगे बढ़ने से ही आजादी के अर्थ को हासिल किया जा सकता है. यह प्रक्रिया तब तक चलती रहनी चाहिए, जब तक कि एक–एक बच्चे के चेहरे पर मुस्कान पहुंच नहीं जाती.

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