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जनसरोकार की पत्रकारिता के तीन दशक

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर प्रभात खबर ने 14 अगस्त को अपनी यात्रा के 33 वर्ष पूरे कर लिये हैं. झारखंड प्रभात खबर की जन्मभूमि है. 14 अगस्त, 1984 को प्रभात खबर ने रांची से अपने सफर की शुरुआत की थी. एक सुदूर पिछड़े इलाके से निकल कर प्रभात खबर ने समाचारपत्रों की दुनिया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 17, 2017 1:12 PM
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
प्रभात खबर ने 14 अगस्त को अपनी यात्रा के 33 वर्ष पूरे कर लिये हैं. झारखंड प्रभात खबर की जन्मभूमि है. 14 अगस्त, 1984 को प्रभात खबर ने रांची से अपने सफर की शुरुआत की थी. एक सुदूर पिछड़े इलाके से निकल कर प्रभात खबर ने समाचारपत्रों की दुनिया में एक खास जगह बनायी है. प्रभात खबर अभी दस स्थानों- रांची, जमशेदपुर, धनबाद, देवघर, पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया, कोलकाता और सिलिगुड़ी से प्रकाशित होता है. लगभग 40 लाख पाठकों का हमारा संसार है.
प्रभात खबर हमेशा सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रहा है. हमारा सूत्र वाक्य ‘अखबार नहीं आंदोलन’ यूं ही नहीं है. इसका एक पूरा इतिहास है. गांधीजी, जिसे समाज का अंतिम आदमी कहते थे, उस अंतिम आदमी के लिए यह अखबार हमेशा से मजबूती से खड़ा रहा है. जहां भी आम आदमी, समाज और राष्ट्र के विरुद्ध कुछ गलत दिखा, उसके खिलाफ प्रभात खबर एक मजबूत और निष्पक्ष चौथे स्तंभ के रूप में खड़ा हुआ है. जिन घपलों-घोटालों को शासन-प्रशासन ने छुपाकर रखना चाहा, उसे सबके सामने उजागर किया. हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि प्रभात खबर ने सबसे अधिक घपले-घोटाले उजागर किये हैं.
प्रभात खबर की परंपरा रही है कि वह समाज के हर वर्ग की आवाज बने, जोर-शोर से उनके मुद्दे उठाये. इस कार्य में कई प्रकार की बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन हमें अपने पाठकों का नैतिक समर्थन हर बार मिला है. हम जानते हैं कि एक अखबार के लिए पाठकों का प्रेम ही उसकी बड़ी पूंजी होती है. निष्पक्ष खबरों के साथ ही आधुनिकतम जानकारियों से अपने पाठकों को अवगत कराने का हमारा प्रयास रहा है. मेरा मानना है कि अखबार किसी मालिक या संपादक का नहीं होता है, उसका मालिक तो अखबार का पाठक होता है. पाठक की कसौटी पर ही अखबार की असली परीक्षा होती है.
यह सच है कि मौजूदा दौर में खबरों की साख का संकट है. आपने गौर किया होगा कि सोशल मीडिया पर रोजाना कितनी सच्ची-झूठी खबरें चलतीं हैं.
हाल में चर्चित उपन्यासकार काशीनाथ सिंह के नाम से प्रधानमंत्री को एक पत्र सोशल मीडिया पर चल पड़ा. इसमें पाकिस्तान की तारीफ की गयी थी. इस पर बहस चल पड़ी. दूसरी ओर वयोवृद्ध उपन्यासकार सफाई देते-देते परेशान हो गये कि उन्होंने ऐसा कोई पत्र लिखा ही नहीं. बाद में एक पत्रकार सामने आये और उन्होंने कहा कि यह पोस्ट उनकी है लेकिन वह यह देखकर खुद आश्चर्यचकित थे कि अचानक कैसे उनकी पोस्ट काशीनाथ सिंह के नाम से चल निकली. कुछ समय पहले रांची के एक मंदिर में आग की एक तसवीर सोशल मीडिया पर चल पड़ी. तसवीर देखकर न्यूजरूम में खलबली मच गयी. थोड़ी देर में पता चला कि तसवीर झूठी है, कहीं और की है जिसे रांची का कहकर चला दिया गया था.
दूसरी ओर टीवी चैनल तो रोज शाम एक छद्म विषय पर बहसें कराते हैं. चोटी कटवा जैसी अफवाह को जोर-शोर से प्रसारित किया जाता है, उस पर बहसें होती हैं.
हम सब जानते हैं कि यह महज अफवाह है, लेकिन इस सामूहिक उन्माद को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत नहीं किया जाता. यह नहीं बताया जाता कि इस अफवाह के शिकार केवल निम्न वर्ग के लोग हैं. दूसरी ओर मेधा पाटकर के अनिश्चितकालीन अनशन की खबर मीडिया में स्थान नहीं पातीं. कभी टीवी में महंगी सब्जियों रिपोर्टिंग पर गौर करें. एंकर उन्हीं सब्जियों की महंगाई पर अपना ध्यान केंद्रित करता या करती है जो उस सीजन की नहीं होतीं. बेमौसमी सब्जियां तो हमेशा से महंगी मिलती हैं लेकिन इन शहरी नवयुवक अथवा नवयुवती को इसका ज्ञान नहीं होता.
यह अलग बात है कि अब हर मौसम में हर सब्जी उपलब्ध होने लगी है लेकिन आपको उसकी कीमत चुकानी होती है. टीवी में एक ओर विचित्र बात स्थापित हो गयी है. वहां एंकर जितनी जोर से चिल्लाये, उसे उतनी सफल बहस माना जाने लगा है. ऐसा नहीं है कि अखबारों में कमियां नहीं हैं. अखबारों ने भी जनसरोकार के मुद्दों को उठाना बंद कर दिया है. अब किसानों के प्रदर्शन की खबरें सुर्खियां नहीं बनतीं. बेरोजगारी और पूर्वोतर की घटनाएं मीडिया के एजेंडे में पहले से नहीं है. बाजार के दबाव में अखबार भी शहर केंद्रित हो गये हैं.
अखबार उन लोगों की अक्सर अनदेखी कर देते हैं, जिन्हें उसकी सबसे अधिक जरूरत होती है. लेकिन प्रभात खबर ने हमेशा स्थानीय और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को स्वर देने का काम किया है. झारखंड में दलित, आदिवासियों की आकांक्षाओं को प्रभात खबर ने ही आवाज दी है. दूसरी ओर सरकारें बड़ी विज्ञापनदाता हो गयीं हैं, वह दबाव अलग है. समय के साथ पाठक वर्ग भी बदल गया है.
अखबार पहले खबरों के लिए पढ़े जाते थे लेकिन मार्केटिंग के इस दौर में अखबार फ्री कूपन और मुफ्त लोटा-बाल्टी के आधार पर निर्धारित किये जाने लगे हैं. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि आज भी अखबार खबरों के सबसे प्रमाणिक स्रोत हैं.
आप भी महसूस करते होंगे कि विकास की दौड़ में हमारे गांव लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. बिजली-पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों में केंद्रित होकर रह गयीं हैं. आजादी के 70 साल हो गये लेकिन गांवों में बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है जबकि यह उनका बुनियादी हक है. प्रभात खबर इस बात को शिद्दत से महसूस करता है कि गांवों का जीवन स्तर सुधरना चाहिए. विकास की प्राथमिकता के केंद्र में गांव होने चाहिए, उन तक भी विकास की किरण पहुंचनी चाहिए. बुनियादी सुविधाएं उनका हक है.
ऐसे परिदृश्य में प्रभात खबर गांवों पर केंद्रित अखबार पंचायतनामा निकालता है. साथ ही ग्रामीण, खासकर महिलाओं को हमने गांव में बदलाव की खबरें देने के लिए प्रशिक्षित किया है. ये महिलाएं पंचायतनामा की रिपोर्टर हैं. वे अपने गांवों से खबरें भेजती हैं, साथ ही वे ग्रामीणों को उनके अधिकारों और सरकारी योजनाओं की जानकारी देती हैं. हाल में एक और प्रयोग के रूप में प्रभात खबर के आठ संस्करणों ने आठ गांवों को गोद लिया है.
वैसे तो यह सरकारों की जिम्मेदारी है लेकिन हमारा मानना है कि एक चेतन अखबार का भी दायित्व बनता है कि वह भी ऐसे कामों में हाथ बंटाये. हम जनप्रतिनिधियों और सरकारी योजनाओं के माध्यम से इन गांवों तक विकास योजनाओं को पहुंचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. उतार-चढ़ाव भरी यात्रा के इस पड़ाव में प्रभात खबर को आप सब की शुभकामनाओं की जरूरत है.

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