बेमुद्दा चुनाव में विवश लोकतंत्र
चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव की तिथियां घोषित करने के साथ ही भारतीय लोकतंत्र के इस महापर्व का आगाज हो चुका है. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 16वीं लोकसभा का यह चुनाव मेरे विचार से संक्र मण के दौर से गुजर रहा है. इसकी मुख्य वजह चुनाव का बिना मुद्दों का होना है. एक समय […]
चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव की तिथियां घोषित करने के साथ ही भारतीय लोकतंत्र के इस महापर्व का आगाज हो चुका है. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 16वीं लोकसभा का यह चुनाव मेरे विचार से संक्र मण के दौर से गुजर रहा है. इसकी मुख्य वजह चुनाव का बिना मुद्दों का होना है. एक समय था जब भारतीय जन-गण हर दल के घोषणा-पत्र को आधार बना कर मतदान करता था.
भले ही जातीय समीकरणों के आधार पर ही चुनावी जीत-हार के पैमाने तय होते रहे हों, लेकिन बावजूद इसके यह कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय मोरचे की सरकार ने बोफोर्स तोप घोटाले पर पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ जनमत तैयार कर उस समय वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था, जबकि आज घोटालों की बाढ. में भी विपक्ष सत्तासीन दल के खिलाफ जनमत तैयार नहीं कर पाया है. 2जी और कोयले से लेकर रॉबर्ट वाड्रा के जमीन घोटाले ने हिंदुस्तान की जनता के पैसे का बंदरबांट कर पूरे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ. चौपट कर दी. लेकिन जनता आज फिर से गुमराह है.
जनता को गुमराह करने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है. कुकरमुत्ते की तरह नित नये राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए शुभ संकेत नहीं है. आखिर कब जनता के मूल मुद्दों को आधार बना कर राजनीतिक पार्टियां जनता के पास जायेंगी? बेरोजगारी, गरीबी, बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ जैसे मुद्दों पर कब इनकी नजर पड.ेगी? राजनीति धनाढय़ों का पेशा बन चुकी है, जो इनके दौलत के साम्राज्य और रसूख को बनाये रखने में महती भूमिका निभाती है. अगर यही प्रवृत्ति रही तो इस लोकसभा चुनाव के परिणाम काफी घातक होंगे और देश में अराजकता की स्थापना होते देर नहीं लगेगी.
अंशुमन भारती, कोलकाता