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जरूरी बदलाव की ओर

लगातार तीन तलाक बोलकर तुरंत विवाह-भंग करने के मुस्लिम समुदाय में चलन को अमान्य, अवैध और असंवैधानिक करार देने के अदालती फैसले से उम्मीद बंधती है कि अन्य समुदायों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के साथ गैर-बराबरी का सलूक करनेवाले नियमों पर देश में व्यापक जन-जागृति आयेगी और ऐसे नियमों को न्यायपूर्ण बनाने की दिशा […]

लगातार तीन तलाक बोलकर तुरंत विवाह-भंग करने के मुस्लिम समुदाय में चलन को अमान्य, अवैध और असंवैधानिक करार देने के अदालती फैसले से उम्मीद बंधती है कि अन्य समुदायों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के साथ गैर-बराबरी का सलूक करनेवाले नियमों पर देश में व्यापक जन-जागृति आयेगी और ऐसे नियमों को न्यायपूर्ण बनाने की दिशा में सुधार के प्रयास तेज होंगे. शायद यही वजह है जो राजनीतिक दलों, महिला आयोग, मीडिया और नागरिक संगठनों के बहुत बड़े हिस्से ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को ऐतिहासिक बताया है.
इस फैसले को सिर्फ मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की गुंजाइश के रूप में देखना इसकी संभावनाओं को सीमित करके देखना होगा. साल 2002 के एक फैसले में न्यायाधीश आरसी लाहोटी और पी वेंकटरामा की पीठ ने शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के मामले में भी इस तलाक के चलन पर सवाल खड़े किये थे. इस बार अदालत ने उस फैसले को विस्तार दिया है. फैसले के बहुमत वाले हिस्से में माना गया है कि विवाह-भंग के एक तरीके के रूप में तुरंत तिहरा तलाक कुरआन की भावनाओं के अनुरूप नहीं है.
इससे एक राह खुलती है, जिसके सहारे अदालत में पर्सनल लॉ की हिफाजत करते हुए उसमें मौजूद संभावनाओं को खंगालकर ज्यादा से ज्यादा न्यायापूर्ण बनाने के तरीकों के बारे में सोचा जा सकता है. अगर ऐसा होता है, तो इससे भारतीय नव-जागरण की भावनाओं को व्यापकता मिलेगी. विधवा-विवाह की तरफदारी या सती-प्रथा पर रोक जैसे प्रसंगों में देश के धर्म-सुधार आंदोलन के नेताओं ने धर्म-परंपरा में शामिल ग्रंथों, खासकर विभिन्न स्मृतियों, के आधार पर तर्क दिये थे.
किसी एक धर्म या समुदाय को बाकियों की तुलना में अविवेकी ठहराने के सियासी चलन के उलट यह याद रखना उपयोगी हो सकता है कि एक ही धर्म के भीतर एक से ज्यादा परस्पर विरोधी परंपराएं होती हैं और इस आपसी विरोध में अक्सर प्रगतिशील तत्व मौजूद होते हैं. भारत के नागरिक होने के नाते हमारे भीतर यह स्वीकार करने का साहस होना चाहिए कि विवाह-विच्छेद या उत्तराधिकार के मामले में हर धर्म या समुदाय में महिला-विरोधी नियम प्रचलित हैं और यह भी कि पर्सनल लॉ की हिफाजत करते हुए ऐसी स्थितियों को दूर करने के उपाय भी हर धर्म और समुदाय में समान रूप से खोजे जा सकते हैं.
मामले को राज्यसत्ता बनाम धर्म की टकराहट का रूप देने से कहीं ज्यादा बेहतर यह है कि संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार की राह पर मजबूती से चल सकने की स्थितियां तैयार की जायें. ऐसा करके ही मौजूदा फैसले के दूरगामी असर को हकीकत में तब्दील किया जा सकता है.

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