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बड़ी है इस फैसले की ताकत

जकिया सोमन संस्थापक, भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन delhi@prabhatkhabar.in एक ही बार में फौरन तीन तलाक देकर शादी को खत्म करने की एक बुरी परंपरा पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत इस रूप में होना जरूरी है कि इससे हमें एक नयी ताकत मिली है. निश्चित रूप से स्वतंत्र भारत के इतिहास में मुस्लिम […]

जकिया सोमन
संस्थापक, भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन
delhi@prabhatkhabar.in
एक ही बार में फौरन तीन तलाक देकर शादी को खत्म करने की एक बुरी परंपरा पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत इस रूप में होना जरूरी है कि इससे हमें एक नयी ताकत मिली है. निश्चित रूप से स्वतंत्र भारत के इतिहास में मुस्लिम औरतों के हक में यह एक ऐतिहासिक फैसला है.
यह इस रूप में ऐतिहासिक है, कि संविधान के प्रावधानों के बावजूद और मुस्लिम औरतों के हक में कुरान में दर्ज प्रावधानों के बावजूद बहुत सी मुस्लिम औरतों को उनके अधिकार नहीं मिल पाते हैं. इसमें कुछ तो मर्दों की मनमानी होती है और कुछ जाकरूकता की कमी होती है. इस ऐतबार से आजादी के सत्तर साल बाद उन्हें ये अधिकार मिले हैं, जिससे उम्मीद बनी है कि मुस्लिम समाज में कुछ बदलाव जरूर आयेगा. यही नहीं, ऐसे फैसले सिर्फ मुस्लिम औरतों के हक के लिए ही नहीं काम आते हैं, बल्कि हमारे लोकतंत्र को भी एक मजबूती देते हैं.
ऐसे फैसलों से अदालतों पर भरोसा बढ़ता है और कमजोर से कमजोर लोग भी इंसाफ पाने के लिए फौरन कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हैं. इसलिए यह फैसला आनेवाले समय में एक ऐसे कानूनी हथियार का काम कर सकता है, जिसकी बदौलत कुरीतियों की बेड़ियों को आसानी से काटा जा सकता है.
जिस तरह से बीते सत्तर साल से बराबरी का संवैधानिक अधिकार मिले होने के बावजूद मुस्लिम औरतों को उनके हक से महरूम रखा गया है, इससे एक बड़ी संख्या में मुस्लिम औरतों ने अपने पीड़ित-शोषित होने को अपनी नियति मान बैठी थीं. लेकिन, अब यह बेड़ी कमजोर होगी. हम यही नहीं रुकेंगे, बल्कि आगे आनेवाले दिनों में हर उस सामाजिक बुराई से लड़ेंगे, जिनका शिकार होकर मुस्लिम औरताें की जिंदगी बर्बाद होती है. हम शोषित होने को नहीं, बल्कि अपना हक पाने को अपनी नियति बनायेंगे.
हमारे देश में सामाजिक बुराईयों का ताना-बाना बहुत ही पेचीदगी भरा होता है, और एक फैसले भर से उन्हें खत्म हुआ नहीं मान लेना चाहिए और यह संभव भी नहीं है. इसी सिलसिले में, फौरन तीन तलाक की समस्या एक बड़ी समस्या है, इसलिए यह महज एक फैसले से ही इसका हल मुमकिन नहीं है. अब इसको सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया से जोड़ना पड़ेगा. लेकिन हां, ऐसे अदालती फैसलों से हमें मदद जरूर मिलती है, जिसके सहारे हम सामाजिक बदलाव के लिए आगे बढ़ सकते हैं.
समुदाय के अंदर लड़कियों और औरतों के बीच एक तरह की जागरूकता और शिक्षा का प्रसार तो करना ही पड़ेगा, ताकि वे कानूनी फैसलों की अहमियत को समझ सकें और गलत परंपराओं का शिकार होने से बच सकें. तभी मुमकिन है कि जेंडर जस्टिस (लैंगिक न्याय) और जेंडर इक्वलिटी (लैंगिक समानता) की दिशा में हम कुछ अच्छा कर पायेंगे. यहीं पर कानूनी फैसले हमारी मदद करते हैं और हमें अधिकार देते हैं कि हम अपने हक के लिए लड़ सकें और पितृसत्ता की मनमानी को रोकने के लिए आवाज बुलंद कर सकें.
समाज में मौजूद किसी भी बड़ी समस्या या बुराई को कानूनी तरीके से दूर करने की कोशिश सामाजिक बदलाव की लड़ाई का एक मजबूत हिस्सा होती है. हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश में एक अच्छी कानूनी पहल हमेशा ही सामाजिक सुधार को बढ़ावा देनेवाला होता है.
इसलिए यह सोचकर नहीं बैठना चाहिए कि सामाजिक सुधार के लिए सिर्फ सामाजिक आंदोलन ही जरूरी है, बल्कि उसका साथ देने के लिए कानूनी पहलों की भी जरूरत होती है. मुस्लिम समाज में जिस तरह से गरीबी है, आर्थिक तंगी है और अशिक्षा है, उससे उस समाज में जागरूकता फैलाने में बहुत दिक्कतें आती हैं. एक समाज सशक्त और सक्षम तभी बनता है, जब वह शिक्षित हो. और शिक्षित समाज ही सामाजिक सुधार को बढ़ावा दे सकता है. इसलिए शिक्षा को लेकर तो हमें काम करना ही है, साथ ही अपने जायज हक के लिए भी लड़ते रहना है.
आज अगर मुस्लिम समाज में शिक्षा पर जोर होता और लोग धर्म, ज्ञान-विज्ञान, परंपरा, शास्त्र आदि के बारे में कुछ ही सही मगर जानकारी रखते, तो यह मुमकिन नहीं होता कि कोई संगठन उस समाज की औरतों के हक के खिलाफ जाकर कोई मनमानी करे. जब संविधान ने सबको बराबरी का हक दिया है, तो फिर दूसरा उसे कैसे छीन सकता है?
ऐसा ही पैगाम इस्लाम का भी है कि हर इंसान बराबर है और उनके अधिकार भी बराबर हैं. लेकिन, समाजों में जागरूकता की कमी और अशिक्षा के चलते तीन तलाक जैसी बुराइयां पनप जाती हैं. इन्हीं बुराईयों से लड़ने और उन्हें खत्म करने के लिए हमने भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन शुरू किया है. अभी यह हमारी पहली जीत है. हमें उम्मीद है और यकीन भी है कि आगे भी हम अपनी हर लड़ाई जीतेंगे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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