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स्त्रियां बदल रही हैं

पिछले एक दशक में स्त्रियों के संदर्भ में जो बात सामने आयी है, वह है- किसी भी स्थिति से सामंजस्य बिठाने की उनकी अपूर्व क्षमता. यूं तो उनकी शक्ति और सहनशीलता को लिखा जाये तो शायद कागज कम पड़ जायें और स्याही घट जाये. यथ, हरि अनंत हरि कथा अनंता, तथ स्त्री कथा अनंता. अब […]

पिछले एक दशक में स्त्रियों के संदर्भ में जो बात सामने आयी है, वह है- किसी भी स्थिति से सामंजस्य बिठाने की उनकी अपूर्व क्षमता. यूं तो उनकी शक्ति और सहनशीलता को लिखा जाये तो शायद कागज कम पड़ जायें और स्याही घट जाये. यथ, हरि अनंत हरि कथा अनंता, तथ स्त्री कथा अनंता.
अब स्त्रियों के लिए दुखिया या अबला शब्द इस्तेमाल नहीं होते. अपने आस-पास देखिये कि वैसी महिलाएं जो समय से पहले वैधव्य जीवन जीने के लिए मजबूर हो गयी हैं, अब वे सफेद साड़ी की परिधि से निकल गयी हैं. बनाव-शृंगार में कोई कमी नहीं. इनमें से अनेक ने पुनर्विवाह भी कर लिया है और जमाने की रूढ़िगत बातों से खुद को दूर कर लिया है. किसी कारणवश ही अकेली जिंदगी गुजारनेवाली महिलाएं आत्मतुष्टि और आत्मविश्वास से भरी हैं. वे अपनी हॉबी विकसित करके क्लब, सोशल साइट्स या टीवी के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन कर रही हैं.
तीज-त्योहारों का मुख्य उद्देश्य एकरसता से निकल कर मन में उत्साह और तन में स्फूर्ति भरना है. इन अर्थों को चरितार्थ करती वैसी महिलाएं दिखीं, जिन्होंने बिन विवाह सूत्र में बंधे तीज का व्रत रखा, वह भी निर्जला. उनके तर्क अकाट्य थे, कहना था कि वो उपवास रह कर खुद की परीक्षा ले रही हैं कि आखिर कब तक वो उपवास रह सकती हैं.
कुछेक का यह भी कहना था कि सोलह शृंगार कर सोशल साइट्स पर उन्हें फोटो पोस्ट करनी है, इसलिए इन्होने सिंगार किया. लड़कपन से गुजरती लड़कियां कहतीं हैं- पौराणिक कथाओं में थोड़ा परिवर्तन लाना होगा, तीज और करवाचौथ जैसे त्योहार केवल एक व्यक्ति-विशेष के लिए क्यों हों और फिर केवल विवाहित महिलाओं के लिए ही क्यों? इनकी अपनी दलीलें हैं.
निष्कर्ष यही है कि जो उन्हें अच्छा लगता है, और जिनसे उनकी आत्मा को खुशी मिलती है, वो वही करना चाहती हैं. जाहिर सी बात है, लीक से हटकर कुछ करने में समाज की अंगुलियां उठेंगी ही, पर इससे आज की स्त्रियों को कोई फर्क नहीं पड़ता. और पड़ना भी नही चाहिए, आखिर कब तक कोई किसी और को प्रसन्न करने के लिए उनके अनुसार जीये?
अब स्त्रियां खुल कर जीना चाहती हैं. जिस ताकत पह उन्हें देवी बनाकर वर्षों दबा कर रखा गया, उससे आजाद हो वे अब इंसान बनकर जीना चाहतीं हैं.
धर्म-जाति के दायरे में घुटती नहीं हैं. अब वे बोलती हैं. अदालत के चक्कर भी लगाती हैं, न कि गाय की तरह एक खूंटे से बंध कर रहतीं हैं. परंपराओं के तहत वे बलि का बकरा बनना पसंद नहीं करतीं. वे सजती हैं, संवरती हैं, घूमती हैं और मस्त रहती हैं. उन्हें अपनी जिंदगी का मकसद धीरे-धीरे समझ आने लगा है.

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