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आधार के प्रयोग को रोकना उचित नहीं

हरिवंश राज्यसभा सांसद यह बौद्धिक विमर्श और संवाद अपनी जगह है, पर बिचौलियों और भ्रष्टाचार को खत्म करना आज समाज की निगाह में व्यवस्था का सबसे प्रासंगिक और जरूरी मसला नहीं है? हाल ही में एक डच दार्शनिक विचारक व इतिहासकार रटजर बर्जमैन की महत्वपूर्ण किताब आयी है, ‘यूटोपिया फॉर रिअलिस्ट्स’ (ब्लूम्सबेरी). यह अंतरराष्ट्रीय स्तर […]

हरिवंश
राज्यसभा सांसद
यह बौद्धिक विमर्श और संवाद अपनी जगह है, पर बिचौलियों और भ्रष्टाचार को खत्म करना आज समाज की निगाह में व्यवस्था का सबसे प्रासंगिक और जरूरी मसला नहीं है? हाल ही में एक डच दार्शनिक विचारक व इतिहासकार रटजर बर्जमैन की महत्वपूर्ण किताब आयी है, ‘यूटोपिया फॉर रिअलिस्ट्स’ (ब्लूम्सबेरी). यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेस्टसेलर मानी गयी है. इस पुस्तक का मर्म है कि हम एक अप्रत्याशित उथल-पुथल के दौर में रह रहे हैं. जहां हमारे भविष्य, समाज, कामकाज, प्रसन्नता, परिवार और पैसा को लेकर अनगिनत सवाल हैं, पर किसी के पास इनका उत्तर नहीं हैं. इस पुस्तक में लंदन में मई 2002 में हुए एक प्रयोग का उल्लेख है.
आधार के प्रसंग में यह जानने-सीखने योग्य है. लंदन (यूरोप का वित्तीय केंद्र ) के मशहूर स्क्वायर माइल चौराहे पर, पिछले चालीस वर्षों से तेरह आवासविहीन (होमलेस) लोग रह रहे थे. पिछले चालीस वर्षों से ये तेरह, ब्रिटेन की पुलिस, अदालत और एनजीओ के लिए मुसीबत बने हुऐ थे.
इन तेरह लोगों पर ब्रिटेन सरकार के तीनों विभागों(पुलिस, अदालत और सामाजिक सेवा देनेवाली संस्थाएं) का कुल मिलाकर वार्षिक खर्च चार लाख पौंड या 6.50 लाख डॉलर था. यह भारी मुसीबत थी. लंदन स्थित एक संस्था ब्राडवे ने एक मौलिक निर्णय किया कि इन तेरह आवासविहीन सड़क बाशिंदों की वीआइपी व्यवस्था की जायेगी. उनके रोज खाने-रहने का बंदोबस्त सरकार द्वारा होगा. यानी सीधे उनके हाथों में पैसा. हरेक पर 3000 पौंड सालाना खर्च करने के लिए सरकार व्यवस्था करेगी. वे सीधे करें या अपने सलाहकार के माध्यम से खर्च करें, यह उनके विवेक पर. चालीस वर्षों से सड़क पर रहनेवाले उन लोगों की जरूरतें क्या थीं.
एक टेलिफोन, एक शब्दकोश, सुनने में मदद करनेवाला एक सहायक यंत्र. इस तरह हरेक की छोटी-मोटी अलग-अलग जरूरतें. एक वर्ष बाद पता लगा कि इनका वार्षिक खर्च औसत 800 पौंड रह गया है, जबकि सरकार इन्हें 3000 पौंड दे रही है. इनमें सिमोन नाम के एक सज्जन थे, जो बीस वर्षों से हेरोइन (नशा) के वश में थे. इस बदलाव ने सिमोन का जीवन बदल दिया. सिमोन ने कहा कि पहली बार मेरे जीवन में कुछ नया घट रहा है. मैंने खुद अपनी देखभाल शुरू की है.
अपनी सफाई, नियमित दाढ़ी बनाना. अब मैं घर लौटना चाहता हूं, जहां मेरे दो बच्चे हैं. इस प्रयोग के डेढ़ साल बाद, तेरह में से सात सड़क पर सोने वाले लोगों के सिर के ऊपर अपनी छत यानी अपना घर हो चुका था. दो और अपने नये घरों में जाने वाले थे. इस तरह सड़क पर रहने वाले 13 लोगों को सीधे पैसे मिलने की स्थिति ने उनका जीवन ही बदल दिया. उन्होंने पढ़ाई में दिलचस्पी ली. खाना बनाने के काम में रुचि दिखाई, अपने परिवार से मिलने-जुलने लगे, भविष्य की योजनाओं में तल्लीन हो गये. इस योजना से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा इन प्रयोगों ने इन लोगों को अधिकारसंपन्न बनाया. मौका दिया कि अपने जीवन में हस्तक्षेप कर सकें. नये प्रयोग कर सकें. अपने को बदल सकें.
कई दशकों से सरकार या उसकी एजेंसियां इन लोगों को सड़क से हटाने के लिए दंडित करने, दवाब डालने, समझाने, अदालती मुकदमा जैसे काम करती रहीं, पर हालात वैसे ही रहे. इन सब पर लगभग सालाना 50 हजार पौंड खर्च होता रहा. इनसे जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं पर खर्च अलग था. इस नये प्रयोग ने सरकारी खर्च भी घटाया और इनका जीवन भी बदल दिया.
इस प्रयोग को देख कर दुनिया की मशहूर पत्रिका ‘द इकोनोमिस्ट’, ने लिखा, आवासविहीन सड़कों पर रहने वाले लोगों पर खर्च का सबसे बेहतर प्रामाणिक तरीका, उन्हीं को पैसा देना है. दरअसल डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम का ऐसा ही प्रत्यक्ष असर भारत में दिखेगा, जब सीधे गरीब अपने हक का पैसा अपने हाथ में पाएंगे तो इससे गरीबों को अपनी नियति और भविष्य बदलने का सपना एक नया रूप लेगा. सरकार की बचत अलग होगी.
इसके प्रयोग से भारत के पार्लियामेंट को दी गयी सूचना के अनुसार पेट्रोलियम मंत्रालय ने अपने सर्वे में तीन करोड़ जाली या फर्जी गैसधारकों की पहचान की चर्चा की है. यूनाइटेड नेशन की एक रिपोर्ट है ‘एनेबलिंग डिजिटल आइडेंटिटी’, जिसमें उल्लेख है कि आधार की बदौलत भारत में ऊर्जा सब्सिडी में एक बिलियन डॉलर की बचत संभव है.
जाने-माने आर्थिक पत्रकार व आर्थिक राजनीतिक नीतियों के अध्येता शंकर अय्यर की आधार पर अभी-अभी पुस्तक आयी है. पुस्तक की भूमिका में वह कहते हैं- क्रांति क्या है? उत्तर में मशहूर अर्थशास्त्री जॉन कीनीथ गॉलब्रेथ को उद्धृत करते हैं कि सभी सफल क्रांतियां सड़े-गले दरवाजों को ध्वस्त करने की दास्तां हैं.
इसी रूप में यूनिक आइडेंटिटी प्रोग्राम्स; आधार) करोड़ों-करोड़ों को खासतौर से वंचितों को यह पहचान या वजूद या हथियार देता है कि वे साबित कर सकें कि ‘आइ एम एंड हू आइ एम’ यानी मैं हूं और मैं कौन हूं तथ्यों के आधार पर वह बताते हैं कि पिछले कई दशकों में सरकारों ने करदाताओं के अरबों-खरबों रुपये सब्सिडी के रूप में गरीबों के विकास के लिए दिये. उनकी दुनिया में छाये अंधेरे में रोशनी के लिए खर्च किये.
छात्रवृति के रूप में पेंशन के रूप में या अन्य सामाजिक कल्याण के कामों में. यह खर्च देश की जीडीपी का लगभग तीन फीसदी है. पर, भ्रष्टाचार के कारण इसमें से आधे से अधिक राशि कभी सही व्यक्तियों को या जिनका इस पर वास्तविक हक था, उन तक पहुंची ही नहीं. बीच में बिचौलिये खा गये. वह याद दिलाते हैं कि शायद नयी पीढ़ी को मालूम न हो. वर्ष 1985 की घटना. ओड़िशा के कालाहांडी में एक निर्वासित महिला फानूस की दास्तां. वह अपने परिवार को खिलाने में अशक्त व असहाय थी. उसने अपनी 12 वर्षीय ननद को महज 40 रुपये में बेच दिया. भारत की मीडिया में तब ऐसी खबरें राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियां बनती थीं. पूरे देश में इसे लेकर आक्रोश उभरा.
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी उन गर्मियों में वहां गये. वहां की स्थिति देखकर स्तब्ध रह गये. अभिजात्य परिवार और अभिजात्य परिवेश में पले-बढ़े राजीव गांधी के लिए यह स्थिति सदमा थी. वह नेक इंसान थे. परिस्थितििवश राजनीति में आये. पूरे राजनेता नहीं हुए थे. दिल्ली लौटकर उन्होंने लगातार कई महत्वपूर्ण बैठकें बुलायीं. नौकरशाही को कहा कि इसका हल निकालें.
शंकर अय्यर की पुस्तक में दिये गये आंकड़े के अनुसार 1986-87 में भारत खाद्य और उर्वरक सब्सिडी पर 37 बिलियन रुपये खर्च करता था.
तब यह जीडीपी का 1.7 फीसदी था. और सामाजिक कल्याण के क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा पर 59 बिलियन रुपये खर्च करता था. पर इन योजनाओं के लिए आवंटित यह राशि बहुत कम मात्रा में रिसकर नीचे जाती थी यानी जरूरतमंदों तक पहुंचते -पहुंचते 100 पैसे में 15 पैसे रह जाती थी. कुछ दिनों के बाद राजीव गांधी राजस्थान गये, वहां भी यही स्थिति देखी. भारतीय आबादी का 40 फीसदी हिस्सा गरीबी झेल रहा था. फिर बंबई के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने अपनी इस पीड़ा को स्वर दिया. ओड़िशा और राजस्थान के अनुभवों को शब्द दिया. कहा, गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों में यदि 100 रुपये ऊपर से आवंटित होते हैं तो नीचे 15 रुपया ही पहुंच पाते हैं.
बीच की यह राशि 85 रुपये) प्रशासनिक खर्च बिचौलिये, सत्ता के दलाल, ठेकेदार और भ्रष्टों की जेब में जाती है. उड़ीसा की फानूस जैसी महिलाएं, सबसे गरीब महिला(शायद गांधी का अंतिम व्यक्ति) तक आते-आते सरकारी ‘विकास की यह नदी’ सूख जाती है. ऐसे गरीबों का हक ये बिचौलिए मार जाते हैं. इसी तरह सरकार समाज के गरीब लोगों के लिए सस्ते दर पर चावल, गेहूं, तेल, किरासन तेल और चीनी भेजती है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत. पर घंटों-घंटों लाइन में खड़े रहने के बाद उनके घर या रसोई तक पहुंचते-पहुंचते जन वितरण प्रणाली का यह सागर सूख जाता है. वे उदास घर की और लौट जाते हैं.
1985 में योजना आयोग का निष्कर्ष था कि 11 उपभोक्ता सामग्रियां, जिन्हें गरीबों तक या उनकी रसोई तक पहुंचाना था, उनमें से एक भी अनियमित आपूर्ति और खराब गुणवत्ता के कारण गरीबों के बीच नहीं पहुंच रही. शंकर अय्यर की पुस्तक में उल्लेख है कि 1985-2004 के बीच छह महत्वपूर्ण अध्ययन हुए, जिनमें वर्ल्ड बैंक और योजना आयोग के अध्ययन भी शामिल हैं.
इनका निष्कर्ष था कि सार्वजनिक आपूर्ति के ये खाद्यान्न गरीबों तक पहुंचते ही नहीं. इसमें बड़े पैमाने पर लीकेज या भष्ट्राचार है. इस बीच 1986 में खाद्य सब्सिडी की राशि जो 20 बिलियन रुपये थी, बढ़कर 2004 में 270 बिलियन रुपये हो गयी. 2004 में योजना आयोग के एक मूल्यांकन में पता चला कि 2003-2004 के बीच 16 राज्यों को गरीबों तक पहुंचाने के लिए 14.07 मीट्रिक टन खाद्यान्न दिये गये, पर महज 5.93 मीट्रिक टन खाद्यान्न ही बीपीएल परिवारों तक पहुंच पाये. 2005 में योजना आयोग के एक अध्ययन ने बताया कि केंद्रीय पूल से जारी 58 फीसदी सब्सिडाइज्ड खाद्यान्न बीपीएल परिवारों तक इसलिए नहीं पहुंचे, क्योंकि उनकी पहचान में भूल हुई, या उनका अता-पता ही नहीं था.
वितरण में अपारदर्शिता थी. खुली लूट और भ्रष्टाचार ऊपर से. 2008 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने पुनः 23 वर्षों बाद राजीव गांधी की बात दोहरायी कि गरीबों के लिए आबंटित एक रुपये में से महज 16 पैसे ही उन तक पहुंच रहे हैं. यानी व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोगों को सब पता था, पर या तो वे असहाय थे या बीच की लूट में लगी ताकतों के आगे समर्पित और उनकी सेवा में थे.
शंकर अय्यर की पुस्तक में दर्ज तथ्यों के अनुसार सिर्फ जनवितरण प्रणाली के खाद्यान्नों में ही यह लूट नहीं हो रही थी, ऊर्जा के नाम पर जो सब्सिडी, किरासन तेल, एलपीजी गैस और डीजल के लिए दिया जा रहा था, वह 2002 में 62 बिलियन रुपये था. 2009 में बढ़कर 760 रुपये बिलियन हो गया.
घरेलू गैस यानी एलपीजी का लाभ उनको भी मिल रहा था, जो दुनिया के शीर्ष अमीरों में से एक हैं. लगभग दो दशकों बाद वर्ष 2008 में राहुल गांधी ने भी अपने पिता राजीव गांधी की बातों को ही दोहराया. 23 वर्षों बाद. किसी संवेदनशील व्यवस्था में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता कि पिता प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी यही कहा, इसके बाद कांग्रेस के नरसिंह राव, मनमोहन सिंह या विपक्ष की मिलीजुली सरकारों की सूत्रधार रही. वह क्यों नहीं इसे रोकने के लिए कुछ कर पायी? क्या वह असहाय या अक्षम थी या सत्ता में रहते व्यवस्था की गंभीर लूट को सवाल उठा कर वह नायक-खलनायक दोनों की भूमिका में रहना चाहती थी.
साथ ही लूट की वह व्यवस्था किसके हित में कायम रखना चाहती थी, या कांग्रेस ही इस लूट को किन्हीं कारणों से अघोषित संरक्षण दे रही थी, क्योंकि 70 वर्षों की आजादी में सबसे अधिक राज उसका रहा है.
उदारीकरण के बाद 1991 से 2010 के बीच भारत का खर्च खाद्यान्न ऊर्जा और उर्वरक की सब्सिडी पर 122 बिलियन रुपये से बढ़कर 1.73 ट्रिलियन रुपये हो गया. और इसी बीच सामाजिक क्षेत्रों में केंद्र और राज्यों का कुल खर्च मिलकर 102 बिलियन रुपये से 5.29 ट्रिलियन रुपये हो गया.
एक तरफ सब्सिडी और गरीबों के कल्याण के सरकारी खर्च पर बेतहाशा वृद्धि हुई पर उसका परिणाम नीचे तक नहीं पहुंच रहा था. कुछ राज्यों में तो जितने घर थे, कहीं उससे अधिक राशन कार्ड थे. इस तरह भारत का भविष्य और विकास, भ्रष्टाचार के अंधेरे ने निगल लिया था .
‘आधार’ ने उम्मीद पैदा की है कि सही आदमी को पहचानकर उसकी मदद की जाये. सीधे उसके हाथ में उसका हिस्सा देकर, पहुंचाकर, ताकि वह अपनी नियति का खुद मालिक बन सके. किसी बिचौलिये या भ्रष्ट अफसर के रहमोकरम या दया पर मयस्सर न रहे. 23 अगस्त को भारत सरकार ने सूचना दी है कि मल्टीनेशनल कंपनियों समेत निजी कंपनियों ने तीन वर्ष में तीन महीनों में 1.52 लाख करोड़ रुपये की टैक्स चोरी की है.
सरकार ने इस मामले में जांच सर्वे का निर्धारण, टैक्स की वसूली, जुर्माना और क्रिमिनल कोर्ट के सामने मामला दायर करने का काम भी शुरू कर दिया है. टाइम्स ऑफ इंडिया की सूचना के अनुसार 2,246 कंपनियों ने 39852.86 करोड़ रुपये की आय की सूचना नहीं देने की बात स्वीकार कर ली है. अब आप फर्ज करें! सेंट्रल एक्साइज सर्विस टैक्स और कस्टम में किस तरह इस तरह की चोरियां होती रही है. अगर इन सब कर देने वालों की पहचान इनके खातों से जुड़े तो टैक्स चोरी आसान नहीं रह जायेगा.
नोटबंदी और कालेधन के खिलाफ सरकार ने जो कानून बनाये या काम किये हैं. उनका असर साफ दिख रहा है. आयकर देनेवालों की संख्या में 25 फीसदी की बढ़ोतरी पांच अगस्त तक हुई है. नोटबंदी का अलग असर कश्मीर के पत्थरबाजों और नक्सली गतिविधि पर हुआ है.
24 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों एके सीकरी और अशोक भूषण ने माना कि कल्याणकारी लाभों और पैनकार्ड के लिए सरकार ने आधार को अनिवार्य बनाया, उसमें राज्य का वैधानिक हित (लेजिटीमेट स्टेट इंटरेस्ट) है. 155 पेज के फैसले में कहा कि यह कानून बनाकर राजसत्ता अपनी सीमा से बाहर नहीं जा रही है. विभिन्न योजनाओं से आधार को जोड़ने में कोई पूर्वाग्रह भी नहीं है. उच्चतम न्यायालय ने अपने इस आदेश में कहा कि संसद को प्रासंगिक कानून बनाने का हक है.
जजों ने कहा कि राज्य का फर्ज है कि वह वैसी योजनाएं. जो वंचित वर्गों के हित में हो राजसत्ता यह भी सुनिश्चति करे कि गरीबों को पर्याप्त अवसर मिल रहे हैं. कल्याणकारी कामों में भ्रष्टाचार या लीकेज पर इस पीठ ने टिप्पणी की ‘इस बात पर संशय नहीं कि यूआईडी-आधार के माध्यम से ऐसी अनेक बुराइयों को नियंत्रित किया जा सकता है. कोर्ट ने यह भी कहा कि आधार से फर्जी या दोहरा लाभ लेनेवाले लोगों की भी पहचान हो सकेगी, जो वाजिब लोगों का हक मारते हैं, लाभ लेते हैं.
अदालत ने यह भी कहा कि आधार के प्रयोग से कानून के क्रियान्वयन में लगी संस्थाएं, आतंकवाद,अपराध, मनीलाड्रिंग, भ्रष्ट्राचार और ब्लैक मनी नियंत्रित करने में सक्षम होंगी. उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि पैन को आधार और बायोमेट्रिक पद्धति से जोड़कर बेहतर बनाने की जरूरत है. क्योंकि जो लोग अनेक पैनकार्ड रखते हैं, उनका मकसद स्पष्ट है कि वे मनीलाड्रिंग कर चुराने और ब्लैकमनी को सुरक्षित पहुंचाने या ब्लैकमनी जेनरेट करने के लिए करते हैं.
संसद ने अपने विवेक के तहत यह विचार किया है कि एक आदमी के पास एक पैनकार्ड होने से और वह आधार से जुड़े होने से चीजें नियंत्रित होगी. सरकार ने आठ अगस्त तक 11.4 लाख पैनकार्ड को निरस्त कर दिया है, क्योंकि अबतक इतने लोगों के पास एक से अधिक पैनकार्ड था. स्पष्ट है बहुत हद तक भ्रष्टाचार, काला धन या गैरकानूनी गतिविधियां नियंत्रित की जा सकती है.
पर, आधार योजना के इस प्रयोग का विरोध कुछ प्रामाणिक लोगों द्वारा भी हो रहा है. उन्हें शक है कि आधार के माध्यम से सरकार लोगों के निजी जीवन में हस्तक्षेप कर सकती है. निगरानी रख सकती है. आइडेंटिटी कंट्रोल कर सकती है. इस तरह लोगों की प्राइवेसी खतरे में होगी.
आधार को लेकर कुछ और गंभीर लोगों ने अनेक प्रासंगिक सवाल उठाये हैं. ये लोग तकनीकी पक्ष के भी गहरे जानकार हैं. इनमें से एक कर्नल मैथ्यू थॉमस से हमारी मुलाकात कुछ महीनों पहले हुई. उन्होंने ऐसे अनेक तथ्य आधार को लेकर बताये, जो गंभीर सवाल खड़े करते हैं. सरकार और आधार को तकनीकी रूप से श्रेष्ठ और सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य माननेवाले लोगों को इन सवालों के जरूर उत्तर देने चाहिए. पर, आधार के प्रयोग को रोकने की बात कहीं से उचित नहीं है.
दरअसल हमारे मुल्क के बौद्धिक के साथ गंभीर समस्या है. वे उदारता को स्वच्छंदता मानते हैं. पर वहां उदार समाज और उदार मूल्यों को बचाये रखने के लिए जो व्यवस्थागत प्रावधान हैं, उन्हें मानने के लिए तैयार नहीं है. यह स्वच्छंदता है. स्वछंदता या स्वअनुशासन का न होना या नियम-कानून को न मानना उदारता पर प्रहार है.
आधार के मामले में कम से कम ऐसा ही हो रहा है. स्वीडेन की गिनती दुनिया के श्रेष्ठ देशों में होती है, जहां सबसे बेहतर सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान हैं. समाजवादी विचारधारा के लोगों के लिए तो आदर्श मुल्क है. वहां सबका आइडेंटिटी कार्ड है. शराब पर प्रतिबंध नहीं है, पर बहुत कम दुकानें हैं. ग्यारह से पांच या ग्यारह से सात तक दुकानें खुली रहती है.
लोग आइडेंटिटी कार्ड लेकर शराब ले सकते हैं. लगभग हर जगह आइडेंटिटी कार्ड की जरूरत है. हाल में एक मित्र वहां एक विश्ववद्यिालय में पढ़ाने गये. जब तक उनका आइडी कार्ड नहीं बना, बैंक अकाउंट नहीं खुला. इसी तरह सिंगापुर में बिना आइडी कार्ड आप नहीं घूम सकते. कभी भी आइडी कार्ड मांगा जा सकता है.
यदि आप कहते हैं कि घर पर छूट गया है तो पुलिस घर तक साथ वह देखने जायेगी. इसी तरह अमेरिका में सामाजिक सुरक्षा नंबर या पहचान अनिवार्य है. इस तरह यूरोप के सभी देशों में यही स्थिति है. चीन, रूस और अन्य देशों की बात तो छोड़ ही दें! वहां तो पहचान के कठिन प्रावधान हैं. ऑस्ट्रेलिया में भी पहचान के सख्त प्रावधान हैं. कम उम्र के बच्चे शराब नहीं खरीद सकते.
इस संदर्भ में महात्मा गांधी से बेहतर और प्रामाणिक कौन हो सकता है. उनके अनेक कथन हैं, जो स्पष्ट करते हैं कि स्वच्छंदता की बुनियाद पर उदारता का माहौल नहीं बन सकता. स्वअनुशासन या सामाजिक अनुशासन के बिना अराजकता स्वतः आयेगी. इसलिए अराजकता को रोकने के लिए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऐसे कानूनी प्रावधानों का होना भारत के हित में है.

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