‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई, भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई’- ऐसा सिर्फ जगद्-नियंता ईश्वर के लिए कहा जा सकता है, लोकतंत्र के लिए नहीं. कोई व्यवस्था तभी लोकतांत्रिक होती है, जब वह शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत पर चले. लोकतंत्र में परम स्वतंत्र कोई नहीं होता, अपना मनभाया करने की छूट किसी को नहीं होती. जैसे संसद, जिसे सर्वोच्च कहा जाता है, भी भारतीय लोकतंत्र में संविधान के बुनियादी ढांचे को बदलने के लिए स्वतंत्र नहीं है.
कानूनी विवाद की स्थिति में सर्वोच्च माना जानेवाला सुप्रीम कोर्ट भी स्वयं नये विधान नहीं रच सकता. लेकिन ममता बनर्जी की राजनीतिक शैली लोकतंत्र के इस बुनियादी नियम पर अकसर चोट करती है. जब-तब अपने फैसलों से वे ऐसा आभास कराती हैं, मानो वे इस लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर एक ‘परम स्वतंत्र मुख्यमंत्री’ हैं. जब भी कुछ उनके मन के खिलाफ होता नजर आता है, वे एकदम से तन जाती हैं और पूरी व्यवस्था उन्हें साजिश रचती प्रतीत होती है. चुनाव आयोग से चल रही रस्साकशी में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है.
सभी जानते हैं कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेवारी चुनाव आयोग की है. अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह के क्रम में ही आयोग ने शिकायत मिलने पर पश्चिम बंगाल सरकार को सूबे के आठ अधिकारियों के तबादले के आदेश दिये. पर, ममता को लग रहा है कि कांग्रेस, भाजपा, माकपा-भाकपा सब मिल गये हैं और आयोग को अपने प्रभाव में लेकर पश्चिम बंगाल में उन्हें हराने की साजिश रच रहे हैं. सो, बर्दवान के अपने भाषण में उन्होंने सबको चुनौती दे डाली कि वह आयोग के आगे नहीं झुकेंगी, कोई चाहे तो उन्हें जेल में डाल दे.
ध्यान रहे कि कभी ममता भी आरोप लगाती थीं कि अपने समर्थक अधिकारियों के बूते वाममोर्चा सरकार मतदान में हेराफेरी करवाती है. ममता को विरासत में वही नेताओं के प्रभाव में आनेवाली प्रशासनिक मशीनरी व कार्य-संस्कृति मिली है. सो, मुक्त और निष्पक्ष चुनाव कराने में इस मशीनरी की निष्ठा पर संदेह स्वाभाविक है. परंतु स्वयं को पीड़ित और शेष को पीड़क बतानेवाली दीदी की राजनीतिक शैली सिक्के का यह दूसरा पहलू देखने से हमेशा चूक जाती है. अफसोस है कि अपनी इस चूक से वे लोकतंत्र की बुनियादी मान्यता को चोट पहुंचा रही हैं.