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बदलाव के संकेत
आपने जिसे दुश्मन समझ लिया है वह आपकी आंखों के आगे किसी विपदा में पड़ा दिखायी दे तो आप क्या करेंगे? मनुष्य होने के नाते आपको एक सहज बोध हासिल है. वह बोध आपको बार-बार सिखाता है कि कोई जब विपदा में पड़ा हो तो पहला काम है, अपने नफे-नुकसान का ख्याल छोड़कर मदद करना. […]
आपने जिसे दुश्मन समझ लिया है वह आपकी आंखों के आगे किसी विपदा में पड़ा दिखायी दे तो आप क्या करेंगे? मनुष्य होने के नाते आपको एक सहज बोध हासिल है. वह बोध आपको बार-बार सिखाता है कि कोई जब विपदा में पड़ा हो तो पहला काम है, अपने नफे-नुकसान का ख्याल छोड़कर मदद करना. कश्मीर में हाल-फिलहाल ऐसा ही देखने को मिला.
सेना के जवानों से भरा एक वाहन बड़गाम जिले में एक पहाड़ी सड़क से नीचे फिसल गया. वाहन उलट गया और सैनिक घायल हुए. घायल सैनिकों को निकालने और मरहमपट्टी करने का काम कश्मीरी नौजवानों जिस उदारता से किया, वह उनकी प्रचलित छवि से मेल नहीं खाती और कश्मीर में हालात को सामान्य बनाने के लिहाज एक अहम राजनीतिक संदेश जान पड़ती है.
बड़गाम जिले के इस वाकये ने दरअसल शत्रुता के संबंध की व्यर्थता को रेखांकित किया है. दुश्मनी के रिश्ते की एक खासियत यह होती है कि उसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे को मानवोचित मूल्यों, जैसे- दया, करुणा, उपकार आदि से वंचित बताते हैं.
बेशक दुश्मनी किसी न किसी दुनियावी मकसद (मिसाल के लिए राजनीतिक-सामाजिक ताकत) को हासिल करने के लिए ठानी जाती है, लेकिन दुश्मन पर हमलावर होने के जब कारण गिनाये जाते हैं, तो आखिरकार तर्क यही दिया जाता है कि उसमें मानवोचित गुणों की कमी है.
शत्रुता का संबंध मनुष्य के अमानवीयकरण की मांग करता है- इस बात के प्रमाण के रूप में अलगाववादी भावनाओं से भरे कश्मीरी नौजवानों और भारतीय राजसत्ता के संबंध को लिया जा सकता है. बीते जून-जुलाई महीने से कश्मीर में हिंसा की आग तेज हुई है. सुरक्षाबलों को शांति कायम करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.
पत्थरबाज नौजवानों की भीड़ अपने जीवन-मरण की चिंता किये बगैर कहीं पाकिस्तान-प्रेरित आतंकियों की तरफदारी में खड़ी दिखायी दी, तो कहीं स्वतंत्र कश्मीर बनाने पर तुले हिंसक अलगाववादियों की तरफ. ऐसे माहौल में सेनाध्यक्ष को कहना पड़ा कि सेना की कार्रवाई में बाधा डालनेवाले आतंकियों के साथ माने जायेंगे और उनके साथ सख्ती से निबटा जायेगा. लेकिन क्षण भर को शत्रुता को एक तरफ करके स्थिति को देखें, तो नजर आयेगा कि कश्मीरी नौजवान देश के अन्य नौजवानों से अलग नहीं हैं.
दया-माया, रोग-शोक, उपकार और स्वार्थ की भावनाएं उसे भी देश के शेष नौजवानों की तरह ही घेरती हैं और भारतीय राजसत्ता से उसका अलगाव स्थायी नहीं है, जरूरत पर्याप्त राजनीतिक प्रौढ़ता दिखाते हुए उन्हें देश की मुख्यधारा में खींच लाने की है.
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