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लक्ष्य से विचलित ब्रिक्स

मोहन गुरुस्वामी अर्थशास्त्री mohanguru@gmail.com विश्व के दो सबसे बड़े राष्ट्रों तथा अर्थव्यवस्थाओं के बीच चली एक तनातनी के तुरंत ही बाद चीन के शियामेन में ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ. कुछ ही दिनों पूर्व नौबत यह थी कि प्रधानमंत्री मोदी इस सुंदर शहर की यात्रा पर जायेंगे भी या नहीं, यह अनिश्चित था. नयी […]

मोहन गुरुस्वामी
अर्थशास्त्री
mohanguru@gmail.com
विश्व के दो सबसे बड़े राष्ट्रों तथा अर्थव्यवस्थाओं के बीच चली एक तनातनी के तुरंत ही बाद चीन के शियामेन में ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ. कुछ ही दिनों पूर्व नौबत यह थी कि प्रधानमंत्री मोदी इस सुंदर शहर की यात्रा पर जायेंगे भी या नहीं, यह अनिश्चित था.
नयी दिल्ली में कई प्रेक्षकों का यह यकीन भी था कि अट्ठाइस देशों के ओबोर (वन बेल्ट वन रोड) सम्मेलन में भाग न लेने के बाद यदि मोदी ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में भी न गये, तो इसके नतीजतन भारत-चीन संबंधों में न केवल एक दीर्घकालीन दरार आ जायेगी, बल्कि ब्रिक्स के भविष्य पर भी संकट का साया मंडरा उठेगा. वैसे यह देखना अभी बाकी है कि शियामेन के बाद भी भारत-चीन संबंध ओबोर-पूर्व की स्थिति में पहुंच पाते हैं या नहीं.
जब अर्थशास्त्री जिम ओ’नील ने 2001 में पांच देशों के इस समूह को ब्रिक्स का नाम दिया, तो उनके मस्तिष्क में बड़ी तथा तेजी से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की एक सूची थी, जो इस नयी सदी के पूर्वार्ध में वैश्विक आर्थिक विकास के बृहत्तर हिस्से का सृजन करेगी. उनके द्वारा दिया गया नाम भी जेहन में ईंट की तस्वीर उकेर वैश्विक अर्थव्यवस्था की एक नयी इमारत का ही बोध कराता है.
साल 2001 में जी-7 समूह वैश्विक जनसंख्या के सिर्फ 10 प्रतिशत के साथ वैश्विक जीडीपी का 46 प्रतिशत सृजित कर रहा था, जबकि ब्रिक्स विश्व की 40 प्रतिशत जनसंख्या के साथ उसके केवल 18 प्रतिशत जीडीपी के सृजन में लगा था, मगर अर्थशास्त्री इस पर सहमत थे कि 2030 तक ब्रिक्स वैश्विक जीडीपी के 40 प्रतिशत का उत्पादक हो जायेगा.
वैसे ब्रिक्स राष्ट्र इन अनुमानों को पीछे छोड़ते रहे हैं. आज वैश्विक जीडीपी के पायदानों में चीन तथा भारत क्रमशः पहले और तीसरे स्थान पर हैं, मगर इसके बावजूद पहले की ही तरह, वैश्विक वित्तीय ढांचा पश्चिमी दुनिया के हाथों में रहते हुए आज भी उनका ही स्वार्थसाधन कर रहा है. ब्रिक्स के भी एक स्थायी ढांचे पर जोर तब पड़ा, जब 2008 की मंदी के बाद वैश्विक आर्थिक तथा वित्तीय प्रणाली में एक बड़े सुधार की जरूरत रेखांकित हुई.
ब्रिक्स की पहली बैठक 2009 में संपन्न हुई, जिसके अगले ही वर्ष यह एक औपचारिक संगठन बन गया, पर विश्व की आर्थिक तथा वित्तीय प्रबंधन प्रणाली को सुधारने की बजाय ब्रिक्स स्वयं को पाश्चात्य प्रणाली को संतुलित करनेवाली सियासी शक्ति के रूप में देखने लगा.
वैश्विक जीडीपी में 35वें पायदान पर रहने के बावजूद दक्षिण अफ्रीका को सान्या शिखर सम्मेलन में इस समूह में शामिल कर इसे पूरी तरह एक ट्रांस-महादेशीय स्वरूप देना इसके साफ संकेत करता था. यह स्पष्ट था कि अब इस समूह में शामिल होने के लिए आर्थिक वजन की शर्त मान्य नहीं रह गयी थी, वरना जीडीपी के लिहाज से दक्षिण अफ्रीका की अपेक्षा नाइजीरिया इसकी सदस्यता हेतु कहीं अधिक योग्य था.
चीन तथा चीनी-अमेरिकी आर्थिक संबंधों की तेज बढ़ोतरी इस सदी की बड़ी रूपांतरकारी घटना रही है. अमेरिका के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी होने के बावजूद, अब चीन का उससे एक लाभदायक रिश्ता कायम है, क्योंकि बेतहाशा दौलत हासिल करने के लिए चीन अपने साथ अमेरिका के व्यापार घाटे पर आश्रित है.
यदि भविष्य में कभी अमेरिका एक जिम्मेदार आर्थिक शक्ति बनता है, तो इसका व्यापार घाटा पिछले वर्ष के 502 अरब डॉलर से काफी नीचे चला जायेगा. सिर्फ चीन के ही साथ इसका व्यापार घाटा 300 अरब डॉलर का है. स्पष्ट है कि अमेरिका की शाहखर्ची में चीन का विपुल निवेश है और उससे उसके फायदे का एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी बैंकों से आता है, जो अमेरिकी शाहखर्ची के अगले चक्र का खुल कर वित्तपोषण कर रहे हैं.
वैश्विक आर्थिक सुधारों के लक्ष्य से हटकर ब्रिक्स अब सिर्फ सालाना सियासी जश्न में तब्दील हो चुका है, जिसका मेजबान राष्ट्र इसे अपनी सियासी शक्ति की नुमाइश का साधन बना देता है. पिछले वर्ष भारत ने इसके शिखर सम्मेलन की मेजबानी करते हुए इसी मौके पर सात पड़ोसी राष्ट्रों के संगठन बिम्सटेक के सदस्य देशों को भी बुलाया था.
भारत वही कर रहा था, जो पिछले वर्षों में ब्राजील एवं रूस कर चुके थे. इस वर्ष चीन ने भी मिस्र, कीनिया, ताजिकिस्तान, मेक्सिको तथा थाईलैंड को आमंत्रित करके अपने वैश्विक रुतबे का प्रदर्शन ही किया है. चीन ब्रिक्स के विस्तार करने की अपनी नीयत के संकेत भी देता रहा है, ताकि उसे हावी होने के लिए एक बड़ा वैश्विक समूह मिल सके.
सदस्य देशों की आपसी मुद्रा में ही व्यापार करने का ब्रिक्स का शुरुआती वादा भी साकार न हो सका. इसकी एक दूसरी बड़ी योजना, ब्रिक्स विकास बैंक, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मस्तिष्क की उपज थी, वह साल 2014 में न्यू डेवलपमेंट बैंक के रूप में सामने आयी. यह बैंक सदस्य देशों को अपनी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता बढ़ाने हेतु छोटी वित्तीय सहायता मुहैया भी करा रहा है, पर अभी भी वह उसकी शुरुआती महत्वाकांक्षा से कोसों दूर है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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