प्रसिद्ध स्पेनिश साहित्यकार जॉर्ज सांतयाना ने कहा है-‘जो लोग अतीत को याद नहीं रख सकते, वे उसे दोहराते हैं.’ निश्चित तौर पर यदि हम विभिन्न धार्मिक अवसरों पर होनेवाले सांप्रदायिक/सामुदायिक विवाद, उन्माद को याद रख पाते अथवा उनसे सबक ले पाते, तो उनको दोहराने की घटनाएं नहीं होतीं. झारखंड में गिरिडीह के बिरनी प्रखंड के तेतरिया सलैडीह और बोकारो के कसमार प्रखंड के मोचरो गांव में रामनवमी जुलूस के दौरान जो कुछ हुआ है, वह सिर्फ सामुदायिक विवाद का नतीजा नहीं.
बिरनी में पहले से तनाव चल रहा था और पुलिस ने एहतियातन जुलूस पर बंदिश भी लगा रखी थी. दूसरी तरफ कसमार में हुई घटना भी पुलिस की तत्परता से संभल गयी. सवाल यह नहीं कि फिरकापरस्त तत्व अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सके. सवाल यह है कि सारी तैयारी के बावजूद ऐसे तत्व कैसे सक्रिय होने का अवसर पा जाते हैं? सवाल यह भी है कि ऐन चुनाव के वक्त ऐसी वारदात कैसे हो जाती है? याद कीजिए पांच दिन पूर्व कोबरा पोस्ट का भंडाफोड़, शाही इमाम से सोनिया की भेंट और देश भर में इस कड़ी में अपने स्तर से प्रतिक्रियाओं से बना माहौल.
ऐसी वारदात की अपनी सामाजिक परिणतियां होती हैं और चुनाव के वक्त तो स्वाभाविक तौर पर इसके फिनोमेनल (परिघटनात्मक) निहितार्थ होते हैं. अतीत इसकी गवाही देता है. यह तो साबित ही हो चुका है कि कम से कम चुनाव के वक्त ऐसी स्थितियों से निबटने के हमारे सारे उपाय फेल हैं. बदलावों की गति और नये तत्वों के सम्मिश्रण ने स्थितियों को उतना रैखिक नहीं रहने दिया है, तो स्वाभाविक है कि परंपरागत उपाय फेल होने ही थे. यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि झारखंड में पलामू के 563 संवेदनशील बूथों के बाद सर्वाधिक संवेदनशील बूथ (411) गिरिडीह में ही हैं.
ऐसे में क्या आपको लगता है कि बिरनी की वारदात सिर्फ वारदात बन कर रह जायेगी. क्या उचित नहीं होगा कि सामाजिक ताने-बाने को पल भर में छिन्न-भिन्न करने के मंसूबे को नाकाम करने की दिशा में चुनाव आयोग को भी अपने स्तर से कुछ खास पहल करनी चाहिए? क्या ही बेहतर हो कि प्रत्याशियों के चुनाव व्यय पर निगरानी के लिए व्यय प्रेक्षक की तरह ऐसी वारदातों की भी निगहबानी के लिए वह कुछ सोचे.