कमाई का हिसाब
खबरों के मुताबिक, आयकर विभाग सात सांसदों और 98 विधायकों की संपत्ति के ब्यौरे में पायी गयी असंगति की जांच कर रहा है. विभाग ने यह बात सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामे के जरिये कही है. केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने अदालत से यह भी कहा है कि अन्य 42 विधायकों और 9 सांसदों की […]
खबरों के मुताबिक, आयकर विभाग सात सांसदों और 98 विधायकों की संपत्ति के ब्यौरे में पायी गयी असंगति की जांच कर रहा है. विभाग ने यह बात सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामे के जरिये कही है. केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने अदालत से यह भी कहा है कि अन्य 42 विधायकों और 9 सांसदों की संपत्ति के ब्योरे की शुरुआती जांच जारी है.
जन-प्रतिनिधियों की शिक्षा, आमदनी, सार्वजनिक पृष्ठभूमि को जानना मतदाता के लिए जरूरी है, ताकि वह अपनी पसंद का चुनाव करने से पहले तमाम पहलुओं पर सोच-विचार कर सके. ऐसी सूचनाओं के सार्वजनिक होने से जवाबदेही कायम होती है. उम्मीदवार द्वारा दी गयी सूचनाओं के आधार पर प्रश्न किये जा सकते हैं और गलत पाये जाने पर उचित कार्रवाई के लिए दबाव बनाया जा सकता है.
सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिहाज से ऐसे उपाय को अहम मान कर नागरिक संस्थाओं ने बहुत प्रयास किये. आखिरकार 2000 के नवंबर महीने में दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि चुनाव में मतदाता उम्मीदवार के बारे में सही फैसला ले सके, इसके लिए बहुत जरूरी है कि हर प्रत्याशी के अतीत के बारे में वह आगाह हो. प्रत्याशी के अतीत के बारे में जानकारी के उपलब्ध न होने को अदालत ने लोकतंत्र के लिए घातक माना था.
उसने इसी सोच से चुनाव आयोग से कहा कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार अपनी संपत्ति, अपनी शिक्षा तथा अपने खिलाफ दर्ज मुकदमों या सजा आदि के ब्योरे जगजाहिर करें. सर्वोच्च न्यायालय ने मई, 2002 के फैसले में भी यही बात कही थी. इसके बाद चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के लिए विशिष्ट जानकारियों का सार्वजनिक करना अनिवार्य कर दिया.
डेढ़ दशक में इसके कुछ सुफल सामने आये हैं. फर्जी डिग्री के आधार पर अपनी उच्च शिक्षा के बारे में दावे करनेवाले जन-प्रतिनिधियों पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाये गये हैं, कुछ मामलों में इस्तीफा भी हुआ है. लेकिन, संपत्ति के ब्योरे के आधार पर जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ विशेष कुछ होता नजर नहीं आ रहा था. आयकर विभाग की जांच की पहल से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की मुहिम को नयी ऊर्जा मिलेगी.
आगे आयकर विभाग पर इस बात का लोकतांत्रिक दबाव बनाया जा सकता है कि वह जांच के घेरे में आये जन-प्रतिनिधियों के नाम सार्वजनिक करे, ताकि मतदाता को उनकी पार्टी और सरकार में उनकी भागीदारी के बारे में भी पता चल सके. उम्मीद है कि जांच और कार्रवाई में बहुत सारा वक्त बर्बाद नहीं किया जायेगा.