अगले आम चुनाव की तैयारी
मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार अगले आम चुनाव को महज डेढ़ साल बचे हैं. गये तीन बरसों में सरकार जनप्रतिनिधि या प्रशासक कम, चुनाव लड़ने की एक विराट मशीन अधिक बनती चली गयी है. आज जबकि तमाम सरकारी दावों के विपरीत वित्त मंत्रालय के ताजा विकास, निर्यात तथा उत्पादन विषयक और नोटबंदी पर रिजर्व बैंक के […]
मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
अगले आम चुनाव को महज डेढ़ साल बचे हैं. गये तीन बरसों में सरकार जनप्रतिनिधि या प्रशासक कम, चुनाव लड़ने की एक विराट मशीन अधिक बनती चली गयी है.
आज जबकि तमाम सरकारी दावों के विपरीत वित्त मंत्रालय के ताजा विकास, निर्यात तथा उत्पादन विषयक और नोटबंदी पर रिजर्व बैंक के आंकड़े देश की घरेलू दशा की एक बहुत नकारात्मक तस्वीर पेश कर रहे हैं. वहीं जनता सरकार की अच्छे दिन आनेवाले हैं, नो पेन नो गेन (तकलीफ नहीं तो लाभ नहीं) की निरंतर दावेदारी से भ्रमित है.
अच्छी बात यह हुई कि चीन से राम-राम करके अभी टकराव टल गया, लेकिन एशिया और फिर दुनिया में अपनी धाक कमवाने की उसकी इच्छा खत्म नहीं हुई है.
हरियाणा में शांति बहाली से लेकर ब्रेक्जिट की सफलता तक हर मुद्दे पर शीर्ष नेतृत्व के अढ़ाई लोगों को ही श्रेय समेटते देखकर जनता को बस एक ही बात का पक्का यकीन है कि कि देश के सारे जरूरी फैसले इधर शीर्ष पर बैठे कुल इन्हीं अढ़ाई लोगों की टीम मूलत: 2019 के चुनावों के मद्देनजर ही ले रही है. शराबबंदी, गोवधबंदी, हस्पताल के ठेकों का पुनर्वितरण, संप्रदाय विशेष की खुफियागिरी व सरकार के करीबी बाबाओं की पकड़धकड़ के दौरान जो कुछ भी डरावने फैसले लिये गये, लोगों को लगता है कहीं न कहीं उसके पीछे भी आर्थिक जरूरतों, नैतिक दबाव या सुरक्षातंत्र की सलाहें नहीं, बल्कि चुनावी शतरंज के नियम ही थे. प्रखर पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हो या कि हरियाणा की हिंसा के लिए जिम्मेदार डेरे के कुछ पदाधिकारियों और उनके गुंडों की पकड़ में बेमतलब ढिलाई इस बात को पुख्ता करती है.
इधर केंद्र ने हिंदीभाषी आर्यावर्त का दिल (और विशालतम वोटबैंक) जीतने के लिए राममंदिर विवाद पर मुसलमानों से मस्जिद अन्यत्र बनवाने की पेशकश के साथ देशभर में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने, उसे तमाम सरकारी कागजों, सरकारी सार्वजनिक नामपट्टिकाओं के लिए अनिवार्य बनाने तथा कश्मीर में धारा 35ए हटवाने के कई अग्निबाण हवा में छोड़ दिये.
सितंबर में हिंदी पखवाड़ा इसके बावजूद यदि ताम-झाम से देशभर में मनवाया गया, तो इसका संदेश बहुत सार्थक नहीं होगा. न हिंदी के लिए, न केंद्र सरकार के लिए.
उधर नये पर्यटन मंत्री आश्वासन दे चुके थे कि गोआ में बीफ की कमी नहीं होगी, अब पर्यटकों से कह रहे हैं कि बीफ खाना हो, तो अपने देश से खाकर आइये. जैसे कभी मास्को के इंगित पर सोवियत रूस ने सोवियत संघ के अस्तित्व के लिए चुनौती खड़ी की थी, उसी तरह जब देश अपनी अंतरराष्ट्रीय साख व विदेशी पर्यटन बढ़ाने को उत्सुक है, ऐसे में बाहरी अतिथियों के साथ केंद्र का एक निरर्थक टकराव भी नये सिर दर्द पैदा करेगा.
अगर केंद्र और कुछ राज्य सरकारें जोर-शोर से घोषणा कर तरह-तरह के भाषाई, सांप्रदायिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर भारत का हिंदूकरण करेंगी, तो क्या आज का अखंड भारत भाजपा के लिए 2019-2024 तक राज करने को बचेगा?
और अगर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा विपक्ष भी महाभारत के अंतिम चरण की तरह येन केन जीतना ही लक्ष्य बनाकर रण में उतर पड़े, तब उस खूनी घरेलू महासमर के बाद बस एक खंडहर भारत बचेगा. फिर शासक हिमालय जाकर उसका तर्पण हम आर्यावर्त के हिंदू जल से करें या सेकुलर जल से, क्या फर्क पड़ना है?
हिंदुत्व की सीमित राजनीतिक अवधारणा को लेकर बनाया गया आर्यावर्त यदि बना, तो वह और अधिक कट्टरपंथी हिंदुत्व की तरफ लपकेगा. याद रखें, 1947 में जिन्ना ने भी इस्लाम खतरे में का नारा उठाकर जो मुस्लिम धर्मराज्य पाकिस्तान के नाम से बनाया था, उससे आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका और चीन दोनों खुद को दूर करने लगे हैं.
केंद्र की देखादेखी राज्य सरकारों की नजरें और सरोकार इधर लगातार संकीर्ण हो रहे हैं, और उनका डंडा अधिक दमनकारी हो रहा है. नतीजतन कोई दैवी आपदा आये या कोई संगीन आपराधिक मामला हो, तो राज्य के प्रभावित लोग राज्य की जांच एजेंसियों की बजाय केंद्रीय जांच और केंद्रीय बलों का सुरक्षा वलय मांगते हैं.
शायद ही कोई महीना गुजरता हो, जब किसी न किसी राज्य से सीबीआइ जांच या केंद्रीय सशस्त्र बल भेजे जाने की गुहार नहीं आती. आज राज्यों में आज्ञाकारिणी पुलिस बिना झिझके मृत मुख्यमंत्री का शव गाड़ देती है और जब ऊपर से कहा गया, तो उसे निकालकर उसका पोस्टमार्टम करने को भी मना नहीं करती. वहां धर्म के नाम पर गुंडागर्दी पोसते अवश्य डेरे हैं, जिनके इलाकाई वोटबैंक, एके 47 से लैस निजी सेनाएं और भाड़े के गुंडे राज्य सरकार से शह पाते दिखते हैं.
दिल्ली भले इंडिया हो, जिसके पास सशस्त्र बल हैं, सुप्रीम कोर्ट है, सेना है और सीबीआइ भी! लेकिन, सिरसा या चेन्नई, गोरखपुर, त्रिपुरा या सहरसा जनता की दृष्टि में अखंड भारत का किस तरह का हिस्सा हैं? डोकलाम विवाद निबटारे, मंत्रिमंडलीय फेरबदल में महिलाओं के सशक्तीकरण और ब्रिक्स पर जयजयकार करते हुए हम नागरिक क्या इन सब पर भी सोच रहे हैं?