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अलोकतांत्रिक नेताओं का लोकतंत्र

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक देशवासियों की तादाद के लिहाज से भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो सकता है, पर क्या हम लोकतंत्र को अमल में लाने में भी अव्वल हैं?स्वतंत्र तथा काफी हद तक निष्पक्ष चुनाव तो यकीनन हमारी महान उपलब्धि है, मगर हमारे राजनेता और उन्हें चुननेवाले नागरिक हमारे लोकतांत्रिक […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
देशवासियों की तादाद के लिहाज से भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो सकता है, पर क्या हम लोकतंत्र को अमल में लाने में भी अव्वल हैं?स्वतंत्र तथा काफी हद तक निष्पक्ष चुनाव तो यकीनन हमारी महान उपलब्धि है, मगर हमारे राजनेता और उन्हें चुननेवाले नागरिक हमारे लोकतांत्रिक नजरिये की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खड़े करनेवाले कुछ मूलभूत सवालों का सीधा सामना करने से इनकार कर देते हैं. इनमें से एक तो राजनीतिक दलों द्वारा वंशवादी शासन की स्वीकार्यता है. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र द्वारा वंशवादी उत्तराधिकार को सामान्य या अपेक्षित सा मान लेने में कुछ न कुछ घृणास्पद अवश्य है.
हालांकि, नेताओं द्वारा अपनी संततियों को अपना उत्तराधिकारी नामित करने में कोई वैधानिक रोक नहीं है, पर ऐसा करने की बढ़ती प्रवृत्ति और उस पर जनाक्रोश की कमी तो लोकतांत्रिक भावना के बिलकुल उलट है.
हमारे लोकतंत्र के जन्मदाताओं को यह देख कर सदमा पहुंचा होता. महात्मा गांधी, सरदार पटेल तथा राजेंद्र बाबू सरीखे नेताओं ने अपनी संतानों को अपनी राजनीतिक विरासत का लाभ उठाने से सयत्न रोका. 1959 में जब इंदिराजी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं, तो पंडित नेहरू को आलोचना झेलनी पड़ी थी.
यहां इस पर गौर करना प्रासंगिक होगा कि उन्होंने तुरंत ही इसका खंडन करते हुए कहा था, ‘मैं निश्चित रूप से उसे अपने अपना उत्तराधिकारी बनने के लिए तैयार नहीं कर रहा. पिछले कुछ वक्त से मैं इस सुझाव का विरोधी रहा हूं, पर उसे चुन लिया गया और हम दोनों पिता-पुत्री से बढ़ कर सियासी सहकर्मियों की तरह रहे हैं.’
नेहरू से जन्मजात नफरत करनेवाले उनके इस कथन पर यकीन नहीं करेंगे, पर महत्वपूर्ण यह है कि तब इस प्रवृत्ति के आलोचक मौजूद थे, जिनमें नेहरू पर सवाल उठाने का साहस था और नेहरू में भी यह ईमानदारी थी कि वे सार्वजनिक रूप से यह कह सके. लेकिन आज यह प्रवृत्ति सिर्फ एक दस्तूर ही नहीं, बल्कि उससे भी बदतर, शांति से स्वीकार्य हो चुकी है.
वंश परंपरा के पैरोकार यह दलील देते हैं कि यदि एक स्वाभाविक उत्तराधिकारी चुनाव जीतने के योग्य है, तो उसका चयन वैध है, क्योंकि यह मतदाताओं की इच्छा दर्शाता है.
यह दलील व्यर्थ है. ऐसे उत्तराधिकारी के लिए एक ऐसे निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव जीतना कदापि कठिन नहीं है, जिसे उसके पिता या माता ने इसी उद्देश्य से सावधानीपूर्वक संवारा है. यह तर्क भी दिया जाता है कि यदि शासक परिवार ने देश के लिए बड़े त्याग किये हैं, तो उसका वंशवादी उत्तराधिकार भी वैध है. त्याग के पुरस्कारस्वरूप संतति को उत्तराधिकार की यह घटिया दलील त्याग का अवमूल्यन ही करती है.
निष्पक्षता की बात यह है कि राजनीति में किसी परिवार की वरीयता उसके वंशजों को एक स्वाभाविक लाभ देती ही है. दूसरी ओर, किसी राजनेता के बेटे-बेटी द्वारा पिता या माता के नक्शेकदम पर चलने में कोई मूलभूत बुराई भी नहीं है.
पर, किसी प्रमुख राजनेता की संतान को उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी की चुनौतीरहित हैसियत स्वतः ही सौंप देना तो घिनौना है ही. तो फिर क्यों इतनी सारी पार्टियों में वंशवाद एक परिपाटी बन चला है? इसकी सिर्फ एक ही वजह है कि राजनेता इसे सक्रियता से बढ़ावा देने लगे हैं. क्या राजनीतिक वर्ग और पूरी जनता भी पारिवारिक जमींदारी से सहमत होने की दोषी है? मेरी समझ से हां.
स्वहित की वेदी पर आदर्शों का बलिदान ही अब राजनीतिक वर्ग का आदर्श है. यदि इसके लिए सत्तासीनों की आराधना करनी पड़ती हो, तो फिर वही सही. ऐसी रीति-नीति निंदनीय चाटुकारिता को जन्म देती है. वंशवाद के उस संरक्षक या उसके स्वाभाविक उत्तराधिकारी की आज्ञा पर प्रश्न करने की हिम्मत दूर-दूर तक कोई भी नहीं करता. चाटुकारिता की लीक से थोड़े भी विचलन को तत्काल ही गैरवफादारी या फिर विद्रोह मान लिया जाता है. बदले की कारवाई भी तेज तथा निर्णायक ही होती है. नतीजतन, स्वीकार्यता एवं बौद्धिक निष्क्रियता का ऐसा माहौल तारी होता है, जो निरंकुश राजाओं के सामंती दरबारों की याद दिलाता है.
इसके लिए नागरिकों को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए. यह उनके विवेक की कमी है, जो राजनीतिक वंशों के फलने-फूलने के लिए जिम्मेदार हैं. वे स्वयं भी एक विस्तृत सत्ता व्यवस्था के हिस्से होते हैं. उन्हें जिस स्थानीय विधायक या संसद की कृपादृष्टि चाहिए, यदि वे यह पाते हैं कि प्रार्थी ने उस सर्वोच्च नेता पर प्रश्न उठाने की गुस्ताखी की है, जिससे वे स्वयं शक्ति पाते हैं, तो वे तुरंत ही अपनी कृपा रोक देंगे. यह समझौतों तथा समायोजनों की ऊपर से नीचे तक पहुंचती एक शृंखला है, जिसने सार्वजनिक चापलूसी को किसी भी अन्य आदर्श से महत्तर लक्ष्य बना दिया है.
यह मौलिक प्रश्न करने का वह वक्त आ गया है कि चढ़ती शक्तिवाले एक नेता को क्यों हमेशा ही किसी मुद्दे के गुण-अवगुण से निरपेक्ष बेशर्त वफादारों की पर्याप्त तादाद मिल जाया करती है. क्या हम जन्मजात चापलूस हैं अथवा हमने व्यावहारिकता को हमेशा के लिए आदर्शों से ऊपर मान लिया है?
यही वजह है कि एक मुख्यमंत्री सार्वजनिक जीवन या प्रशासन के अनुभवों से रहित अपनी गृहिणी के हाथों राज्य की बागडोर सौंप सकता है. यही इसकी भी वजह है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसे दल के, जिसके संस्थापकों ने वैचारिक स्वतंत्रता तथा लोकतांत्रिक पारदर्शिता को सर्वोपरि समझा, समर्थकों की एक बड़ी संख्या आज यह तो समझती है कि क्या कुछ बदले जाने की जरूरत है, पर उसे कहने का साहस नहीं जुटा पाती. और उन पार्टियों में भी, जहां अभी तक वंशवाद हावी नहीं हो पाया है, असहमति तथा बहस की इतनी कम गुंजाइश की वजह भी यही तो है.
भारत अपने जीवंत लोकतंत्र के केंद्र में अलोकतांत्रिक रोग लगाये बैठा है. या तो इसे बदलना ही चाहिए अथवा उस पर लगे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के ठप्पे को इस रूप में पढ़ा जाना चाहिए कि भारत विश्व का ऐसा सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसके शीर्ष पर अलोकतांत्रिक नेताओं की सबसे बड़ी संख्या जमी बैठी है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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