जमाना पाव पर आ गया
मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार शहर से लौटकर आये करिया कक्का मुझे चिढ़ा रहे थे कि बच्चा, तुम्हारा जमाना तो पाव पर आ गया जी. मूंछों को सहलाते हुए कक्का ने बताया कि उनके जमाने में चीजों के दाम सेर में नहीं बताया जाता था. सेर यािन किलो. कक्का पचीस-तीस साल पहले जवान हुआ करते […]
मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
शहर से लौटकर आये करिया कक्का मुझे चिढ़ा रहे थे कि बच्चा, तुम्हारा जमाना तो पाव पर आ गया जी. मूंछों को सहलाते हुए कक्का ने बताया कि उनके जमाने में चीजों के दाम सेर में नहीं बताया जाता था. सेर यािन किलो. कक्का पचीस-तीस साल पहले जवान हुआ करते थे. तब हरेक साल सावन-भादो में बाढ़ आ जाती थी. खेतों में मड़ुआ-कौनी की भी फसलें सजती थीं. कक्का कहते हैं कि तब हाट-बाजार में चीजों के दाम पसेरी और अढ़ैया में ही बोला जाता था. या तो लोग दाम पूछकर आगे बढ़ जाते थे, या फिर अढ़ैया-पसेरी तौला लेते थे.
कक्का की उम्र के लोग आज भी पांच किलो को पसेरी और ढाई किलो को अढ़ैया बोलते हैं. ये वही लोग हैं, जो अब भी हिसाब-किताब करते समय कॉपी पर देवनागरी का ही अंक दर्ज करते हैं. कक्का जब भी चीजों के दाम पूछते हैं, पसेरी के हिसाब से ही. आदत है, ऐसे कैसे चली जायेगी.
लेकिन, एक हमारा जमाना है, जो पाव पर आ गया है. मुझे तो पता था, लेकिन कक्का नहीं जानते थे. वे अब तक इसी भरम में थे कि जमाना पसेरी-अढ़ैया का तो कब का लद गया. हां, किलो का बचा हुआ है. यह भी ठीक है. किलो से कम में क्या होगा.
कल उनका भरम टूट गया, जब उन्होंने फलवाली से अमरूद कै टके पूछा और उत्तर मिला कि दस का पाव. कक्का भन्ना गये. कहने लगे कि मैंने पाव का दाम पूछा है? पसेरी-अढ़ैया न सही, किलो का तो दाम बताना चाहिए न. फलवाली कक्का को अकबकाई देखती रही. वह यही भाव तो सबको बताती है. अमरूद दस का पाव. जामुन बीस का पाव. कहां कोई बिदकता है!
कक्का वहां से हटे तो अमरूद चालीस का किलो सौ का अढ़ैया और दो सौ का पसेरी जोड़ चुके थे. बाप रे! ई महंगाई है कि राक्षस! कहो, अमरूद भी कोई खरीदने की चीज है. कितने तो पेड़ हैं इसके. तब भी दस का पाव! हद्द हो गयी.
असल में कक्का आंख दिखाने शहर गये थे. यह अमरूद का मौसम है न. कक्का के दरवाजे पर अमरूद के तीन-तीन पेड़ हैं. खूब फल आये हैं. क्या बच्चा क्या जवान क्या स्त्री क्या पुरुष, सारे ही दिनभर लगे रहते हैं. काकी कभी किसी को टोक देती हैं, तो काका तुनक जाते हैं. वर्ष भर का फल है. खाने दो सबको. आदमी को. चिड़ैं को. चुन्नी-मुन्नी को.
शहर से लौट रहे थे तो स्टेशन के पास फलवाली की टोकरी में अमरूद देखा, तो वैसे ही दाम पूछ लिया. अब मुझे चिढ़ा रहे हैं कि बचबा, तुम्हारा जमाना तो पाव पर आ गया जी. महंगाई की यही रफ्तार रही तो यह चीजों को ग्राम में बदलकर रख देगा!