अपशब्द अनुचित

बीते कुछ दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक विरोधी ओछेपन की हद तक गये और उनके विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग किया गया. कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का अपमानजनक ट्वीट अभी चर्चा में है. चंद रोज पहले वरिष्ठ कांग्रेसी दिग्विजय सिंह ने भी प्रधानमंत्री पर निशाना साधने के लिए ओछे लफ्जों वाले एक ट्वीट को […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 19, 2017 6:56 AM
बीते कुछ दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक विरोधी ओछेपन की हद तक गये और उनके विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग किया गया. कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का अपमानजनक ट्वीट अभी चर्चा में है.
चंद रोज पहले वरिष्ठ कांग्रेसी दिग्विजय सिंह ने भी प्रधानमंत्री पर निशाना साधने के लिए ओछे लफ्जों वाले एक ट्वीट को रिट्वीट किया. यह बर्ताव एक नेता या पार्टी-विशेष तक सीमित नहीं है, बल्कि हाल के समय में एक संक्रामक रोग बन चला है.
मुश्किल यह है कि राजनेता या पार्टी शिकायतें तो करते हैं, लेकिन यह नहीं देखते या नहीं देखना चाहते कि मर्यादा लांघनेवाली भाषा दरअसल तेज ध्रुवीकरण पर टिकी राजनीति की जरूरत है. आप किसी नेता से कहें कि ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है’, तो शायद वह न सुने, क्योंकि कहीं बहुत गहरे में शायद उसने मान लिया है कि राजनीतिक होना ही पूर्ण मनुष्य होना है और कविता एक व्यर्थ की चीज है. मिर्जा गालिब ने जब कहा कि ‘आदमी को भी मय्यसर नहीं इसां होना’, तो दरअसल वे भाषिक-व्यवहार से जुड़ी चुनौती का भी संकेत कर रहे थे.
जन्म से कोई आदमी हो सकता है, परंतु उसका इंसान बनना इस बात पर निर्भर करता है कि जीवन-जगत के तमाम नातों से उसका निभाव कैसा रहा. यह निभाव व्यक्ति संस्कृति से सीखता है और संस्कृति अच्छे-बुरे का भेद बतानेवाली भाषायी युक्ति का ही नाम है. कविता और राजनीति दोनों भाषाई व्यवहार ही हैं, लेकिन उनमें फर्क है.
कविता को चाहिए सब कुछ को हर कुछ से जोड़ देनेवाले शब्द, जबकि राजनीति अलगाव पर टिकी है. उसमें समान सोच वालों को एक साथ जोड़ने का काम होता है और इसी क्रम में भिन्न सोच रखनेवालों को अलगाना भी. कविता के विपरीत संगठित राजनीति मनुष्य के लिए एकदम ही नया अनुभव है और शायद यही वजह है, जो अभी तक राजनीति में शब्दों के प्रयोग को लेकर ‘आदमी’ से अभी तक ‘इंसान’ बनने का सफर पूरा करना संभव नहीं हो पाया है.
यह सबसे ज्यादा दिखता है चुनावों के वक्त जब राजनेता एक-दूसरे पर सियासी हमला बोलते समय व्यंग्य-वाण से काम लेते हैं और कई बार तमाम मर्यादाओं को लांघते हुए अपशब्दों पर उतर आते हैं. राजनेता की कोशिश होती है, वह हर वक्त समाचारों में रहे. पहले टीवी और अब सोशल मीडिया ने इसे और विस्तार दिया है.
ट्विटर और फेसबुक पर आप कम शब्द और अधिकतम असर वाले जुमले चुनते हैं और रचनात्मकता के अभाव में यह अक्सर गाली जैसा बन पड़ता है. समाधान एक ही है कि राजनीति अपने को अपूर्ण गतिविधि माने और मनुष्य होने की अन्य युक्तियों की तरफ बारंबार मुड़ती रहे.

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