मिथिला ग्राम-ज्ञान परंपरा

सविता खान प्राध्यापिका, जानकी देवी मेमोरियल काॅलेज, डीयू आज हम शिक्षा के संदर्भ में जब भी चिंतनशील होते हैं, तो सबसे अहम बिंदु शिक्षा और शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता होती है. शिक्षा की जिम्मेदारी और गुणवत्ता के नाम पर औपनिवेशिक काल में जब राज्य ने तमाम किस्म की सरंचनाओं को खड़ा करना शुरू किया, तो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 19, 2017 6:57 AM
सविता खान
प्राध्यापिका, जानकी देवी मेमोरियल काॅलेज, डीयू
आज हम शिक्षा के संदर्भ में जब भी चिंतनशील होते हैं, तो सबसे अहम बिंदु शिक्षा और शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता होती है. शिक्षा की जिम्मेदारी और गुणवत्ता के नाम पर औपनिवेशिक काल में जब राज्य ने तमाम किस्म की सरंचनाओं को खड़ा करना शुरू किया, तो सबसे पहला आघात न सिर्फ भारतीय भाषाओं को पहुंचा, बल्कि पाठ्यक्रम में शामिल किये गये विषय और उसकी रूपरेखा भारतीय सामुदायिक और सभ्यतामूलक संदर्भ से नहीं थे.
यहां की लोकप्रचलित ज्ञान परंपरा को, उसकी समाज और उससे उपजे दर्शन परंपरा को भीषण आघात पहुंचाया गया. सवाल है कि अब इसे किस ज्ञान-परंपरा में रखा जाये और उसका भौतिक-सांस्कृतिक कर्म-स्थल कहां हो?
इसका उत्तर कहीं हमारे गांवों में छिपा है, मेरी दृष्टि से गुजरे भारत के अन्य गांवों की तरह संभवतः मिथिला के गांवों में पिछले सदी तक फल-फूल रही, स्वायत्त ज्ञान परंपरा (जो कुछ खास गांव में कम-से-कम संसाधनों में नैयायिकों और मीमांसकों के घरों से चलती थी), जिसमें राज्य या कोई अन्य सत्ता न तो पाठ्यक्रम तय कर रही था न ही डिग्री और परीक्षा का यह विकृत, जानलेवा, बाजारोन्मुखी, भौतिकवादी स्वरूप कहीं से भी ग्रामीण लोक समाज पर इस कदर हावी था कि आज की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी को महामारी बना दे.
अपेक्षा ज्ञान संकलन और आत्मविद्या से परिमार्जन की थी, महज रोजगार की नहीं. मनुष्य को, युवा को महज रोजगार का माध्यम नहीं समझा जा रहा था, इसी ज्ञान परंपरा के ह्रास से संभवतः राज्य, रोजगार और शिक्षा को आवंटन करनेवाली प्रबल शक्ति बनती चली गयी और लोक की, गांवों की स्वायत्तत्ता अपनी आत्मविद्या के बल पर कभी एक पुख्ता रिस्पांस नहीं खड़ा कर पायी, जो राज्याश्रय के बिना भी अपनी ज्ञान-परंपरा को अक्षुण्ण रख सकता था और आज हालत यह है कि हम दान नहीं, बल्कि अनुदानों के कुचक्र में अपनी स्वायत्तता को तलाशने का भागीरथ और असफल प्रयास कर रहे हैं.
वहीं मिथिला के कलेक्टिव विजडम, विपन्नता का विलास और कॉमन रिसोर्सेज के स्वतःस्फूर्त लोक उत्पत्ति का बड़ा ही रोचक नमूना था, यह किस्सा दरभंगा के दग्धरि/चमैनिया पोखरि के उत्त्पति का था, कई परतों और प्रतीकों से गुजरता यह किस्सा (अयाची मिश्र, शंकर मिश्र, चमैन, दान) अंततः जल के श्रोत पर ठहर गया कि कैसे एक चमैन ढेर सारा धन मिलने पर चूंकि अपने मूल गुणों (स्किल) से च्युत होना नहीं चाहती. वह पोखर खुदवा कर अंततः एक सर्वसामान्य के हित में निर्णय लेती है.
आखिरकार दर्शन का इससे उजागर चरित्र हम कहां तलाश सकते हैं, जहां जनसामान्य का जीवन एक दर्शन, नीति से चलता हो? संभवतः इतनी स्वायत्तता बिरले ही आज कोई विवि वा शैक्षणिक संस्था सीखा पाये. मसला यह है कि यह लेयर्ड विजडम गया कहां? तालाब कहां गये और जातिगत प्रपंचों को इन जैसे प्रकरण क्यों नहीं दिशा दिखा पाये?
इन्हीं परिस्थितियों में मिथिला के एक गांव सरिसब-पाही और उसकी संस्था अयाची डीह विकास समिति में कुछ ग्रामीण नैयायिक विद्वान और वहां के आम लोग अपनी ज्ञान-परंपरा के मूल को लेकर एक भागीरथ प्रयास करने को अग्रसर हैं, जिसमें उन्होंने भारतभर से न्यायशाष्त्र से प्रकांड विद्वानों को इकठ्ठा कर रहे हैं.
चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध मैथिल विद्वानों अयाची (भवनाथ मिश्र) और शंकर मिश्र का चौपाड़ी (गांव सरिसब के बीच एक खाली जगह) ही इनका ज्ञान केंद्र था.
किसी भवन, राजभवन और राज्य के इंफ्रास्ट्रक्चर पर आश्रित हो इनकी ज्ञान परंपरा ने दम नहीं तोड़ा, बल्कि गांव के खुले परिवेश में बिना किसी बंधन, भेदभाव की बाध्यता के बगैर उनके ज्ञान का विमर्श चलता रहा. अब वे परिचर्चा और चमैनिया डाबर (तालाब) पर इसी महीने में विमर्श करने जा रहे हैं, तो आशा जरूर बनती है कि न तो भारत के गांव मरेंगे, न उसकी लोक ऊर्जा कम होगी और न ही वहां की ज्ञान-परंपरा के आत्मविद्या तत्त्व के प्रति विश्व का रुझान कभी कम होगा. क्योंकि गांधी का भारत वहीं साकार है और इसी ज्ञान-परंपरा को उन्होंने ‘सुंदर वृक्ष’ कहा था, जिसमें उपनिवेश के प्रतिरोध का भरपूर बीज छुपा था और जो आज के भी नव उपनिवेशवाद का एक व्यापक रिस्पांस(प्रत्युत्तर) देने की माद्दा रखता है, बशर्ते कि ज्ञान परंपरा को उसके मूल ग्राम्य परिवेश से जोड़कर ही किसी विकास का मॉडल तैयार हो. सवाल यह भी है कि पंद्रहवीं सदी के शंकर मिश्र की चौपाड़ी जैसी ज्ञान-परंपरा, शिक्षा के प्रारूप पर अभी तक विमर्श क्यों नहिं हो रहा, क्यों आज के राज्य और लोक ऐसे ओपन स्पेस की स्वायत्तता को मूल्य नहीं दे रहे?
आखिरकार एक गांव और उसके ग्रामीणों के कलेक्टिव विजडम ने ही इतना बड़ा बीड़ा उठाकर यह साबित किया है कि गांव अभी मरे नहीं और शंकर मिश्र का चौपाड़ी अपना स्वरूप बदल कर ही सही, फिर से ज्ञान-परंपरा का केंद्र बनने की क्षमता रखता है.

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