आज़ादी के दीवाने नहीं, अब उनको NRI कहिए
-प्रेम कुमार- NRI पर ‘डोरा डालने’ का काम वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू किया था, जब उन्होंने उनके लिए दोहरी नागरिकता से लेकर तरह-तरह के ऑफर विदेश जाकर दिए. मगर, अब ‘डोरा डालना’ एक बीमारी बन कर सामने आयी है. राहुल गांधी को डोरा डालने का यह रोग लगता दिख रहा है. अमेरिका […]
-प्रेम कुमार-
NRI पर ‘डोरा डालने’ का काम वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू किया था, जब उन्होंने उनके लिए दोहरी नागरिकता से लेकर तरह-तरह के ऑफर विदेश जाकर दिए. मगर, अब ‘डोरा डालना’ एक बीमारी बन कर सामने आयी है. राहुल गांधी को डोरा डालने का यह रोग लगता दिख रहा है. अमेरिका में छात्रों के बीच राहुल रोज संवाद कर रहे हैं. भारतीय राजनीति से उन्हें परिचित करा रहे हैं. सत्ताधारी बीजेपी की पोल खोलते हुए कब वे अपनी पोल खोल जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं होता. इस बार NRI की शान में कसीदे पढ़ते हुए उन्होंने कुछ ऐसा ही किया है.
‘अनिवासी’ हो गये आजादी के दीवाने नेता!
राहुल गांधी ने एनआरआई को बौद्धिक, विद्वान और योग्य बताते हुए उन्हें भारत की तकदीर बदलने के लिए पहल करने को कहा है. राहुल ने कहा है कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का नेतृत्व एनआरआई ने ही किया था. महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जवाहरलाल नेहरू और दूसरे नेताओं का नाम लेते हुए राहुल ने उन्हें एनआरआई बता डाला है. ताज्जुब होता है कि जिन विभूतियों ने स्वराज, जय हिन्द, स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, स्वदेशी, सत्याग्रह, अहिंसक आंदोलन जैसे मंत्रों से हिंदुस्तान की सोती आत्मा को जगाया, वे हिन्दुस्तानी न होकर हिन्दुस्तान के अनिवासी कैसे हो गये? यह कैसी सोच है, जो एनआरआई होने को ही विद्वत्ता का प्रमाण मानती है, आजादी की लड़ाई का प्राण मानती है.
‘अनिवासी भारतीय’ नहीं ‘अनिवासी ब्रिटिश’ थे कांग्रेस के जन्मदाता!
जिस कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं राहुल गांधी, उसका जन्म अगर 1885 में हुआ था और यह वही पार्टी है जिसके प्रथम अध्यक्ष एओ ह्यूम थे, तो राहुल की परिभाषा से भी ह्यूम एनआरई रहे होंगे, जिसका मतलब लगाया जा सकता है ‘नॉन रेज़िडेन्ट ऑफ इंग्लैंड’. राहुल को यह सोचना चाहिए कि उनकी पार्टी भी एनआरआई ने पैदा नहीं की थी. इस पार्टी में शामिल तमाम नेता जरूर ब्रिटेन से पढ़कर लौटे थे. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई वकीलों ने लड़ी. अब जब राहुलजी ने नयी थ्योरी गढ़ने की कोशिश की है तो एक पत्रकार होने के नाते यह उल्लेख करना जरूरी है कि कांग्रेस की स्थापना में शामिल एक तिहाई नेता पत्रकार थे. देश का कोई बड़ा नेता नहीं था, जिन्होंने पत्रकारिता को स्वतंत्रता संघर्ष का माध्यम नहीं बनाया.
क्या राहुल दुनिया के वकीलों-पत्रकारों को भी बुलाएंगे भारत?
राहुल गांधी को चाहिए कि वे दुनिया के वकीलों को एक करें और अपने देश में न्योता दें ताकि उनकी बुद्धि और कौशल के बल पर हिन्दुस्तान तरक्की कर सके. राहुल को सुझाव दिया जा सकता है कि वे दुनिया के पत्रकारों को भी हिन्दुस्तान में ही जगह दें ताकि हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान की धरती से दुनिया का कायाकल्प यह पत्रकार कर सकें.
सच है कि एनआरआई के जनक अंग्रेज ही थे
इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनिया में एनआरआई के जनक अंग्रेज थे. अंग्रेजों के जमाने में ही एनआरआई का बीज दुनिया भर में फैला और आज यह 3 करोड़ से ज्यादा की तादाद बनकर धरती पर बड़ी ताकत बन चुके हैं. कभी अंग्रेजी शासन में सूर्यास्त नहीं होता था. वैसे ही अंग्रेजी शासन में मजदूर बनकर भारतीय गरीब दुनिया भर में फैले, अपनी मेहनत-मशक्कत से जहां गये, वहां की अर्थव्यवस्था को मजबूती दी. भारतीयता की पहचान को भी ज़िन्दा रखा. जब स्वतंत्र देश के रूप में भारत का उदय हुआ, तब भी वे लोग भारत लौटकर नहीं आए. यही लोग आज एनआरआई हैं.
प्रतिभा पलायन से भी बढ़ी NRI बिरादरी
एनआरआई की बिरादरी लंबी होती चली गयी. इसकी वजह हिन्दुस्तान से प्रतिभा पलायन का जारी रहना था. हिन्दुस्तान के नामचीन कॉलेजों से पढ़कर निकली प्रतिभा हो या मजबूत पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद पैदा हुई प्रतिभा हो- इन प्रतिभाओं ने अपना भविष्य भारत से बाहर नॉन रेज़िडेन्ट ऑफ इंडिया बनकर ही देखा. यह नयी आबादी भी NRI की संख्या बढ़ाती रही.
भारत और ब्रिटेन हैं NRI के मम्मी-पापा
कायदे से देखें तो एनआरआई के मम्मी-पापा भारत और ब्रिटेन में रहे हैं. इन लोगों को गुलाम बनाकर अंग्रेज उन देशों में ले गये, जहां उनका शासन था. कहीं सैनिक बनकर, कहीं गुलाम बनकर और कहीं व्यापारी बनकर भारतीय मूल के लोग विदेश में बसते रहे. आज़ाद हिन्दुस्तान में NRI को खुद हिन्दुस्तान ने ही पैदा किया, जहां से अपने अच्छे भविष्य के लिए प्रतिभाएं विदेश में पलायन करती रहीं और एनआरआई की जमात बढ़ती रही.
गुलाम भारत में NRI जैसे शब्द थे ही नहीं
कहना मुश्किल है कि राहुल गांधी ने उन नेताओं को एनआरआई कैसे कह दिया, जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने के बाद भारत की भूमि पर लौटना जरूरी समझा, यहां के लोगों को गोलबंद करना और आज़ादी की शिक्षा देना जरूरी समझा. नेता बने ज्यादातर ब्रिटेन रिटर्न भारतीय पारिवारिक पृष्ठभूमि से मजबूत थे. इसलिए सात समंदर पार जाकर शिक्षा ग्रहण कर सके. यह सच है कि उन्हें इंग्लैंड में आज़ादी का मतलब समझ में आया, मानवीयता, मानवाधिकार, नागरिक अधिकार का सही मायने में उन्हें बोध वहीं हुआ. तभी भारत आकर उन्होंने उस फर्क को महसूस किया. अंग्रेजों के दोहरे चरित्र को उन्होंने जाना और खुद बगावत करते हुए जनता को उसी मानसिकता के लिए तैयार किया. ऐसे लोगों को NRI कैसे कहा जा सकता है? अगर तकनीकी रूप से भी देखें, तो तब गुलाम भारत अंग्रेजों का उपनिवेश था. इंडिया के तौर पर इसकी स्वतंत्र पहचान नहीं थी. इसलिए रेज़िडेन्ट ऑफ इन्डिया या नॉन रेज़िडेन्ट ऑफ इन्डिया जैसे टर्म भी ईजाद नहीं हुए थे.
आजाद भारत का शब्द है NRI
NRI तो आज़ाद भारत में पैदा हुआ शब्द है. जिसने लगातार चार साल तक एक वित्तीय वर्ष में 182 दिन भारत में नहीं गुजारे हों, उन्हें टैक्स चुकाते समय भारतीय होने का लाभ नहीं मिलता है. ऐसे लोग ही NRI कहे जाते हैं. धीरे-धीरे इस शब्द ने इस रूप में आकार ग्रहण कर लिया कि जो भारतीय मूल के लोग विदेश में रहते हों, वे एनआरआई हैं. अब यही समझ मान्य है.
कुछ ने देश के लिए सुविधाएं छोड़ीं, कुछ ने सुविधाओं के लिए देश
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एनआरआई को भारत लौटने के लिए कहते हैं, उन्हें दोहरी नागरिकता की पेशकश करते हैं तो उनकी सोच में भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका संभावित योगदान ही अधिक होता है. मगर, जब राहुल गांधी ने एनआरआई को घर लौटने की बात कही है और उनकी तुलना स्वतंत्रता संग्राम के नायकों से की है तो यह मूर्खतापूर्ण अतिश्योक्ति लगती है. स्वतंत्रता संग्राम के नेता भी चाहते तो अंग्रेजी हुकूमत में अच्छे पद पा सकते थे, विदेशों में बस सकते थे, अच्छा और संभ्रांत जीवन जी सकते थे. लेकिन, इन्होंने इसके बजाए जीवन भर के लिए अधनंगा रहना कबूल किया. एक तरफ भौतिक सुविधाओं का त्याग करते हुए देशसेवा में प्राण त्यागने के उदाहरण हैं ,तो दूसरी तरफ भौतिक सुविधाओं के लिए देश का त्याग के उदाहरण हैं. राहुल ने दोनों उदाहरणों को तराजू के एक पलड़े पर रख दिया है तो दूसरे पलड़े पर हवा में उठ गया उनका बुद्धि विवेक ही नज़र आता है.
(21 साल से प्रिंट व टीवी पत्रकारिता में सक्रिय, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन. संप्रति IMS, नोएडा में एसोसिएट प्रोफेसर MAIL : prempu.kumar@gmail.com TWITER HANDLE : @KumarPrempu )