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चतुरी चाचा की वह चुनावी ‘चाह’

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) सारे न्यूज चैनलों पर एक ही बात सुनते-सुनते तंग आकर मैंने इन चैनलों देखना बंद कर दिया है. सबने एक ही फामरूला अपना लिया है; बस कोई बेवकूफी भरा सवाल उठा लीजिए और उस पर चार-पांच लोगों को बिठा कर घंटों वाक्युद्ध कराते रहिए. इतने समय कोई साहित्यिक या […]

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

सारे न्यूज चैनलों पर एक ही बात सुनते-सुनते तंग आकर मैंने इन चैनलों देखना बंद कर दिया है. सबने एक ही फामरूला अपना लिया है; बस कोई बेवकूफी भरा सवाल उठा लीजिए और उस पर चार-पांच लोगों को बिठा कर घंटों वाक्युद्ध कराते रहिए. इतने समय कोई साहित्यिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने पर चैनलों को लाखों रुपये खर्च करने पड़ते. इस मुफ्त की राजनीतिक बहस पर एक पैसा खर्च नहीं होता. राजनेता से लेकर पत्रकार तक टीवी पर आने के लिए आतुर हैं. जब कोई राजनेता भाषा-साहित्य पर बात नहीं कर सकता, तो किसी साहित्यिक व्यक्ति को उनके ऊल-जलूल विचारों को सुनने की क्या जरूरत है? इस महान लोकतंत्र में कलमकार का वजूद बस एक वोट भर का है, सो जब मतदान का दिन आयेगा, तब किसी को वोट देकर वह अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह कर लेगा. उसे अफसोस इस बात का है कि जिस वोट को वह महीने भर पहले से प्रत्याशियों के बारे में छान-बीन कर, सोच-समझ कर डालेगा, उसी वोट को नासमझ लोग एक नंबरी (सौ का नोट) या एक पन्नी देसी शराब आदि के मामूली लोभ पर जाया कर देंगे.

इस देश की संप्रभुता का दायित्व जिसके कंधों पर है, वह जनता ही जब इतने सस्ते में बिकाऊ है, तब उसके प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार की क्या गिनती करें. लोकतंत्र को हम र्ढे पर चला लेंगे, मगर पहले बाजार में फिल्मी सितारों, क्रिकेट खिलाड़ियों, दो कौड़ी के नेताओं और फरेबी बाबाओं के रंगीन चित्रों की जगह अपने देश के वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और साहित्यकारों के चित्र तो सजा लें, जिन्हें घर की दीवारों पर टांग कर हमारे बच्चे बेहतर सोच विकसित कर सकें. जो जमालगोटा-नुमा शख्स भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा करते हैं, वे सिर्फ प्लंबर हैं, जो टंकी का गंदे पानी बदलने के बजाय टोंटी बदल सकते हैं.

इन्हीं विचारों में उलझा हुआ था कि पास के गांव से चतुरी चाचा आ गये. बिहार के पुरनिया आदमी हैं, इसलिए ‘चाय’ को एक खास टोन में ‘चाह’ कहते हैं. तीसरी कसम फिल्म के हिरामन के लहजे में बोलते हैं. आते ही बोले-‘चाह तो मैं स्टेशन या बस अड्डे पर भी मुफ्त में पी लेता, मगर सोचा कि तुम्हारे साथ बतकही और चाह दोनों मुफ्त मिल जायेगी.’ मेरे अकचकाने पर उन्होंने आंखें नचा कर और अपनी पकी हुई मूंछों पर हाथ फेरते हुए कहा-‘किताबों से बाहर निकलो, तब न जानोगे. इन दिनों गली-गली में ‘मोदी चाह’ मिल रही है, जैसे मंदिरों में भंडारा होता है और गुरुद्वारों में लंगर. मुहल्ले के लड़के अपने घर से पैसा निकाल कर यह खैराती बांट रहे हैं, इस आशा में कि मोदी पीएम बन जायें, तो सब कष्ट दूर हो जाये. मान लो वे बन भी जायें, तो कितने का क्लेश हरेंगे! मधुमक्खियों की तरह सब टूट पड़ेंगे. बेचारे की बोलती बंद हो जायेगी.’

मैंने पूछा-‘क्या आपको विश्वास है कि मोदी पीएम बन जायेंगे?’

चाचा जैसे पहले से ही इस सवाल का सामना करने के लिए तैयार बैठे थे. उन्होंने कंधे से झोला उतार कर मेज पर रखा और इतमीनान से पैर पसार कर कहा-‘तुम पढ़े-लिखे लोगों के साथ यही दिक्कत है. इतना अंड-बंड पढ़ लेते हो कि आंखों में मोतियाबिंद हो जाता है. पास की चीजें भी असपट दिखती हैं. मेरा कहा मानो, तो तुम भी दीमक खायी लाल किताब को ताखे पर रखो और चुनावी घुड़दौड़ में जिस गधे के जीतने का चांस दीखता हो, उसके पीछे लग जाओ. बीच-बीच में जोर से चिल्लाओ- हमारा नेता कैसा हो.. तभी वह सिंहासन पर बैठ कर तुम्हें याद करेगा और किसी मलाईदार कुर्सी पर बैठायेगा.’

मुझ संशयात्मा के सामने चुनाव के बाद की स्थिति बिल्कुल स्पष्ट नहीं दिख रही है. हर चुनाव के बाद यही कहा जाता है कि लोकतंत्र जीत गया. लेकिन अगर लोकतंत्र जीत गया,तो हम क्यों हार गये, देश क्यों बद से बदतर हो गया? मेरी समझ से इतने बड़े लोकतंत्र में चुनाव भी एक कैसीनो है, किसकी गोटी बैठ जाये, कहा नहीं जा सकता.

चाचा को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है. वे खुश हैं कि मोदी के जीतने से काशी नगरी की तकदीर बदल जायेगी. उनके आत्मविश्वास से लबालब भरे चेहरे को देख कर मैं चकित था. आखिर मुझसे रहा नहीं गया. मैंने पूछ ही लिया कि आखिर किस आधार पर आप मानते हैं कि अगली सरकार मोदी की होगी? चाचा ने पद्मासन मार कर, चाह सुरुकते हुए जो कुछ कहा, उसने मुङो विभ्रम में डाल दिया है.

उनका कहना है कि इतिहास की मांग है कि मोदी देश की बागडोर संभालें. इसके पीछे उन्होंने जो तर्क दिया, वह कुछ अजीब-सा है. उनके अनुसार पलासी का युद्ध बंगाल के नवाब और अंगरेजों के बीच हुआ ही नहीं था. वह एक हस्तांतरण था, जिसमें बंगाल के ताकतवर व्यापारियों ने, जगत सेठ के नेतृत्व में नवाब सिराजुद्दौला को इस्ट इंडिया कंपनी के हाथों बेच दिया था. दरअसल, मुगल साम्राज्य के धराशायी होने के बाद से स्वतंत्र सत्ता में आये नवाब और रजवाड़े नये-नये कर लगाने लगे थे और आमदनी बढ़ाने के लिए समृद्ध शहरों पर डाके भी डालने लगे थे, जिसका सीधा असर व्यापारियों के हितों पर पड़ा. वे शांति-सुव्यवस्था और व्यापारिक अवसरों की तलाश में अंगरेज बस्तियों के करीब बसने लगे. आर्थिक दृष्टि से उनकी हैसियत नवाबों से कम नहीं थी. इन्हीं परिस्थितियों में बंगाल के ताकतवर व्यापारियों ने अंगरेज व्यापारियों को मदद कर हिंदुस्तानी सामंतशाही के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था. लॉर्ड क्लाइव की ‘पलासी विजय’ में जगत सेठ और सेठ अमीचंद की महत्वपूर्ण भूमिका थी. पलासी युद्ध के बाद सेठ अमीचंद का परिवार देश के बदलते हुए माहौल में नये व्यवसाय की तलाश में काशी आ गया था. हिंदी के युग-निर्माता साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र उन्हीं के वंशज थे. गुजरात के व्यापारियों के प्रतीक-पुरुष मोदी का काशी आना उसी दिशा में इतिहास का एक कदम है!

चतुरी चाचा का कहना है कि 1947 में मिली आजादी आंशिक थी, क्योंकि आजाद भारत की नयी सरकार ने साम्राज्यवाद के शासन-तंत्र को ज्यों-का-त्यों अपना लिया था. वही नौकरशाही, वही अदालत, वही पुलिस और वही जनता पर अत्याचार के हथकंडे. औपनिवेशिक काल की अर्थव्यवस्था की पूंछ पकड़ कर हम कर्ज और भ्रष्टाचार की वैतरणी नदी में डूब गये हैं. आज के बाजारवाद के दौर में, साम्राज्यवाद से सत्ता का हस्तांतरण कुशल व्यापारी वर्ग ही करेगा, जिसके अग्रणी मोदी हैं.

इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति से सदा दूरी बनाये रखने के कारण मुङो चाचा की बातें समझ में नहीं आ रही हैं. क्या आप भी मेरी तरह ही हैं?

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