समता के पक्षधर दीनदयाल जी

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार आज दीनदयाल उपाध्याय (25 सितंबर, 1916- 11 फरवरी, 1968) जन्मशती वर्ष का समापन दिवस है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों-चिंतकों में उनका स्थान सर्वप्रमुख है. 1937 में संघ में वे शामिल हुए थे. बाद में संयुक्त प्रचारक बने. 1952 में वे भारतीय जनसंघ में आये. एमएस गोलवलकर ने उन्हें ‘सौ प्रतिशत स्वयंसेवक’ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 25, 2017 6:10 AM
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
आज दीनदयाल उपाध्याय (25 सितंबर, 1916- 11 फरवरी, 1968) जन्मशती वर्ष का समापन दिवस है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों-चिंतकों में उनका स्थान सर्वप्रमुख है. 1937 में संघ में वे शामिल हुए थे. बाद में संयुक्त प्रचारक बने. 1952 में वे भारतीय जनसंघ में आये. एमएस गोलवलकर ने उन्हें ‘सौ प्रतिशत स्वयंसेवक’ कहा था.
नरेंद्र मोदी ने उनके द्वारा ‘खून से दल के सींचने’ की बात कही है. 1967 में वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष चुने गये थे. उनका संपूर्ण वाङ्मय 15 खंडों में (प्रभात प्रकाशन, दिल्ली) प्रकाशित हो चुका है. उनकी मृत्यु को कई बार बलराज मधोक ने ‘दुर्घटना’ न कहकर ‘हत्या’ कहा था. जस्टिस वाइवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में जांच कमेटी बनी, पर आज तक उनकी हत्या के वास्तविक कारणों का पता नहीं लग पाया है.
दीनदयाल उपाध्याय का संघ-भाजपा में महत्व सुविदित है. संगठनकर्ता, विचारक, चिंतक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार और पत्रकार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया गया है, पर रचनावली के बाद अब तक सुव्यवस्थित, तर्कपूर्ण, तथ्यपरक, वस्तुपरक ढंग से सभी क्षेत्रों में व्यक्त उनके विचारों के बाद उन क्षेत्रों में गांधी और नेहरू के विचारों को सामने रखकर सम्यक-समग्र विचार-मूल्यांकन समग्र नहीं किया गया है.
उनके ‘एकात्म मानववाद’ पर विस्तार से विचार की आवश्यकता है. ‘ह्यूमैनिज्म’ पद का निर्माण उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में फ्रेडरिक नाइदमर (6 मार्च, 1766- 1 अप्रैल, 1848) ने किया था.
भारतीय जनसंघ के जनवरी 1965 के विजयवाड़ा अधिवेशन में उपस्थित सभी प्रतिनिधियों ने ‘एकात्म मानव-दर्शन’ को स्वीकारा. दीनदयाल उपाध्याय की यह बड़ी वैचारिक देन है, जिस पर आज कहीं अधिक विचार की जरूरत है.
22 से 25 अप्रैल, 1965 को बंबई में उन्होंने जो चार व्याख्यान दिये थे, वे उनकी ‘एकात्म मानववाद’ पुस्तक में संकलित है. उन्होंने बार-बार ‘परस्पर सहयोग’ पर बल दिया है. उनका ‘एकात्म मानववाद’ मानव कल्याण का एक समग्र विचार है. वे समतावाद के पक्ष में थे. बेशक, उनके आदर्शवाद का महत्व है, पर आज की राजनीति में (भाजपा में भी) इसकी जगह नहीं है.
दीनदयाल जी के लिए राजनीति एक ‘मिशन’ थी न कि ‘प्रोफेशन.’ वे किसी प्रकार के ध्रुवीकरण से विरुद्ध थे. जाति ध्रुवीकरण के कारण जौनपुर की संसदीय क्षेत्र से वे उपचुनाव हार गये थे. त्वरित लाभ के लिए सिद्धांतों के त्याग को उन्होंने अनुचित माना था. उनकी पुस्तक ‘पॉलिटिकल डायरी’ की भूमिका संपूर्णानंद ने लिखी थी और उन्हें ‘अपने समय का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक नेता’ कहा था.
उनके समय में जब भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, स्वामी करपात्री की रामराज्य परिषद् के एक होनेे, विलय की बात उठी थी, दीनदयाल जी ने इस विलय के खिलाफ कुछ मूलभूत सवाल खड़े किये थे. स्वतंत्र पार्टी को उन्होंने ‘दलगत स्वतंत्र पार्टी’ कहा था और करपात्री की पार्टी को कुटिया से नहीं जमींदारों और पूंजीपतियों के महलों से चलनेवाली पार्टी माना था. वे व्यक्ति-पूजा के पक्ष में कभी नहीं रहे. दीनदयाल उपाध्याय का नाम घर-घर तक पहुंचाने के लिए भाजपा ने कई योजनाएं बनायी हैं.
उनमें अंतर्दृष्टि थी- सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक. वे ‘धर्म के राज्य’ के पक्ष में थे और धर्म के मौलिक सिद्धांत को अनंत और सार्वभौमिक मानते थे. मुसलमान को उन्होंने ‘हमारे शरीर का शरीर और हमारे खून का खून’ कहा है. भारतीय संस्कृति और भारतीयता संबंधी उनके विचारों पर विचार की जरूरत है.
अभी तक गोलवलकर, हेडगेवार और दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को एक साथ रखकर मूल्यांकन नहीं हुआ है. ‘धर्म’ को दीनदयाल जी ने संकीर्ण रूप में न देखकर ‘एक व्यापक अवधारणा’ के रूप में देखा है, ‘जो समाज को बनाये रखने के लिए जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है.’ उनकी ‘भारतीय संस्कृति’ आज की प्रचलित ‘हिंदू संस्कृति’ से भिन्न है या अभिन्न यह विचारणीय है.
व्यक्ति, बटुआ और पार्टी से अधिक महत्वपूर्ण उनके लिए ‘सिद्धांत’ था. वे एकात्म भारत के सिद्धांतकार थे, न कि हिंदू भारत के. वे सिद्धांत के प्रति अडिग थे, पर 1967 में राज्यों में जो संयुक्त विधायक दल बना था, उसे लोहिया ने ‘दीनदयाल उपाध्याय जी की विशाल दृष्टि का परिणाम कहा था.’
वे पश्चिमी सभ्यता को प्रगति का पर्याय नहीं मानते थे. भारतीय संस्कृति को उन्होंने ‘एकात्म’ कहा है और भारतीय संस्कृति उनके लिए ‘प्राकृतिक’ थी. पार्टियों, राजनीतिज्ञों के सिद्धांतों, उद्देश्यों, आचरणों की उन्होंने कोई ‘मानक संहिता’ नहीं देखी.
वे ‘सार्वभौमिक पश्चिमी विज्ञान’ के पक्ष में थे, पर उसकी जीवन-पद्धति एवं मूल्य के पक्ष में नहीं. ‘पश्चिम का अनुसरण एक नेत्रहीन व्यक्ति द्वारा दूसरे नेत्रहीन व्यक्ति को राह दिखाने की तरह है.’ उन्होंने असमानता को हटाने की बात कही. आज असमानता बढ़ायी जा रही है. भूमंडलीकृत विश्व में क्या दीनदयाल उपाध्याय के विचार-चिंतन का व्यावहारिक महत्व है?

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