पं. दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी : अंत्योदय से भारतोदय तक की यात्रा

तरुण विजय पूर्व सांसद सदियों बाद देश के गरीबों, शोषितों और हाशिए पर ठिठके लोगों पर ध्यान केंद्रित करने का अंत्योदय पर्व पं दीनदयाल उपाध्याय जन्मशती के रूप में आया है. कौन थे वे? सीधे-सादे भीड़ में खोए भारतीय, जो देश की राजनीति को नया कलेवर और पाथेय दे गये. राजनीतिक शत्रुअों और वैचारिक अस्पृश्यताअों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 25, 2017 6:27 AM
तरुण विजय
पूर्व सांसद
सदियों बाद देश के गरीबों, शोषितों और हाशिए पर ठिठके लोगों पर ध्यान केंद्रित करने का अंत्योदय पर्व पं दीनदयाल उपाध्याय जन्मशती के रूप में आया है. कौन थे वे? सीधे-सादे भीड़ में खोए भारतीय, जो देश की राजनीति को नया कलेवर और पाथेय दे गये.
राजनीतिक शत्रुअों और वैचारिक अस्पृश्यताअों के इस दौर में पार्टियां नेतृत्व की वैचारिक परिपक्वता या लीक थोड़े ही बताती हैं. वे सिर्फ मुखिया के नाम से जानी जाती हैं. जो वे कह दें, सही सत्य वचन. सर झुकाये मानो, वरना खेत रहो. ऐसे में हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेताअों की याद ही क्यों करें? बगीचे, अस्पताल और सड़कें उनके नाम पर बनवा देते हैं, इतना भर काफी न होगा क्या?
उन्हें याद इसलिए करना चाहिए कि हमारे देश में सामान्य लोग अभी भी अच्छे हैं. साधारण लोग, साधारण कार्यकर्ता, जो अब भी धनकिया, नगला, चंद्रभाव में मिल जायेंगे या चित्रकूट के रामायण मेला में. दीनदयाल उपाध्याय की याद इसलिए भी जरूरी है कि जाति के कुचक्री भेदभाव से परे लोग जीना चाहते हैं – कोई पार्टी दम के साथ उठे तो सही. जिंदगी को गरीब किसान से जोड़नेवाले लोग महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया, पं दीनदयाल उपाध्याय के साथ खड़े दिखेंगे. हर षडयंत्र से जीत के कुचक्र की लीक धनपतियों के साथ मिलेगी. हारे या जीतें, पर जो दीनदयाल की लीक न छोड़नेवाले होंगे, वे ही गरीब किसान के साथ खड़े दिखेंगे.
दीनदयाल उपाध्याय के लोकतांत्रिक स्वभाव को याद करना इसलिए भी जरूरी है, ताकि वह मानने का माद्दा मन में पैदा हो कि तुम्हारे अलावा भी लोग अच्छे होते हैं. भले ही वे न हमारी भाषा बोलते हों, न ही हमारे झंडों या मुहावरों से सहमत हों. कद कम होता है तब, जब हम उन देहाती धागों की जगह सिंथेटिक फाइबर से बुनाई करते हैं, जिन धागों ने हमारे होने को परिभाषित किया हो.
कुछ समय पहले मैं मुगलसराय गया था, जहां 11 फरवरी,1968 को दीनदयाल जी ने अंतिम सांसें ली थीं. नगर के अनेक कार्यकर्ता मिले. सामान्य जन का मन आज भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की स्मृतियों से बंधा है.
मुगलसराय का नाम दीनदयाल नगर रखने का जी-तोड़ प्रयास किया गया था, पर कुछ न हो पाया. स्टेशन पर एक पत्थर भी न लग सका, जिस पर लिखा होता कि यहां पूंजीवाद और साम्यवाद की विफल विचारधाराअों के समक्ष शुद्ध भारतीय विचारधारा एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पािर्थव देह मिली थी. यह काम अब नरेंद्र मोदी की सरकार कर रही है. वैचारिक अस्पृश्यता की राजनीति के खिलाफ जो दीनदयाल लड़े, उनका पटल भी वैचारिक रंगभेद के कारण दशकों टला.
दीनदयाल जी 25 सितंबर, 1916 को राजस्थान के ही एक गांव धनकिया में जन्मे थे, लेकिन उनका समय उत्तर प्रदेश में नगला चंद्रभान में ज्यादा बीता. बचपन में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया था. कुछ वर्ष उनके मामा ने पाला, पर वे भी ज्यादा न जी पाये. फिर कानपुर पढ़ने आये. वे पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज थे. दसवीं और बारहवीं में उन्होंने टॉप किया था.
वे अंगरेजों के समय सिविल सेवा के लिए भी चुने गये थे. लेकिन, उन्होंने देश सेवा को ही सर्वोपरि माना. अपनी सादगी, कर्मठता, वैचारिक ईमानदारी व मौलिकता की वजह से ही वे ग्रामीण भारतीयता की प्रतिष्ठा बन गये.
वे मानते थे कि आस्था और पंथ को समान अवसर एवं अधिकार प्राप्त हो, परंतु राज्य को धर्म अर्थात सदाचार और सद्कर्तव्यों पर आधारित होना चाहिए. ऐसा धर्मावलंबी राज्य सबके लिए न्याय प्रदान करनेवाला होगा. वे थियोक्रेसी या मजहब और संप्रदाय पर टिकी राज्य व्यवस्था के विरुद्ध थे और सबके लिए समान अवसर एवं समान अधिकार तथा कर्तव्य की बात करते थे.
उनका शताब्दी वर्ष देश के गरीबों, किसानों की स्थिति में सुधार का वर्ष बने. ऐसा हुए बिना यह शताब्दी वर्ष अधूरा रहेगा. खेत-खलिहान वाले तय करें कि सरकार क्या करें और प्रगति का मापदंड गुरुग्राम (जहां की प्रगति भारतीय मानस से कुछ किलोमीटर दूर का दृश्य दिखाती है.) के कंक्रीट के जंगल नहीं, बल्कि खुशहाल, सुरक्षित गांव बनें.
हम सबके हैं, सब हमारे हैं
‘एकात्म मानववाद’ प्रत्येक मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का एक एकीकृत कार्यक्रम है. एक ही चेतना समस्त जड़चेतन में विराजमान है.
इसलिए हम सबके है, सब हमारे हैं. मनुष्य केवल शरीर नहीं, शरीर के साथ-साथ मन भी हैं, बुद्धि भी, आत्मा भी. मनुष्य को पूरी तरह से सुखी रखना है तो शरीर के साथ-साथ मन, बुद्धि और आत्मा के सुख का भी विचार करना होगा. केवल भौतिक प्रगति नहीं, आध्यात्मिक उन्नति का भी विचार करना होगा.
एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत पश्चिमी अवधारणाओं जैसे- व्यक्तिवाद, लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद पर निर्भर नहीं हो सकता है. भारतीय मेधा पश्चिमी सिद्धांतों और विचारधाराओं से घुटन महसूस कर रही है, परिणामस्वरूप मौलिक भारतीय विचारधारा के विकास और विस्तार में बहुत बाधा आ रही है.दीनदयाल उपाध्याय

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