संघ के विचारवान व्यक्तियों में थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय
!!रामबहादुर राय,वरिष्ठ पत्रकार!! पंडित दीनदयाल उपाध्याय की सबसे बड़ी विशेषता इस बात में है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने जीवन की भावी दिशा के लिए चुना. विशेषता इसलिए, क्योंकि 1937 में वे संघ से तब जुड़े, जब कानपुर में वे बीए की पढ़ाई कर रहे थे. उस दौर में कानपुर जब कांग्रेस, कम्युनिस्ट […]
!!रामबहादुर राय,वरिष्ठ पत्रकार!!
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की सबसे बड़ी विशेषता इस बात में है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने जीवन की भावी दिशा के लिए चुना. विशेषता इसलिए, क्योंकि 1937 में वे संघ से तब जुड़े, जब कानपुर में वे बीए की पढ़ाई कर रहे थे.
उस दौर में कानपुर जब कांग्रेस, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट आंदोलनों का गढ़ था, तब एक विद्यार्थी संघ से हीक्यों जुड़ा, इसे मैं उपाध्याय जी के जीवन का अनूठापन मानता हूं. 1937 में संघ के दायित्व के बाद से 1949-50 तक के एक लंबे समय में उन्होंने उत्तर प्रदेश में और पूरे देश में वैचारिक दिशा देने की कोशिश की.
उपाध्याय जी ने जो किताबें लिखी हैं, जो नाटक लिखे हैं, इनमें वैचारिकी का भरा-पूरा आधार इस बात की पुष्टि करता है. उन्हीं दिनों जब भारत का संविधान बन रहा था, तब कांग्रेस, समाजवादी और वाम नेताओं ने संविधान सभा का बहिष्कार किया, लेकिन उन्हीं दिनों उपाध्याय जी ने संविधान पर जो लिखा, उससे स्पष्ट होता है कि वे बहिष्कार के पक्ष मेंनहीं थे, बल्कि वे समझते थे कि यह संविधान भारत की भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा दस्तावेज बन रहा है, जिससे देश संचालित होगा.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के वाङ्मय में लेखों को पढ़ने से पता चलता है कि वह भारत के नवनिर्माण में संविधान का महत्व बतलाते हैं. उन्हें पढ़कर यह भी लगता है कि वे मध्यमार्गी हैं, अतिवादी नहीं. वे संतुलित विचारों वाले व्यक्ति हैं और किसी के प्रति द्वेष की भावना भी नहीं रखते हैं. व्यक्ति और देश के लिए उनके पास एक सकारात्मक दृष्टिकोण है.
संघ ने जनसंघ में जिस सबसे विचारवान व्यक्ति को भेजा था, वे थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय. उपाध्याय जी ने जनसंघ को जो दिशा दी, उसे पढ़-समझकर यही लगता है कि अगर भारतीय जनता पार्टी भी 2017 में उसी दिशा में बढ़े, तो आज के भारत के नवनिर्माण में भाजपा का एक बड़ा योगदान हो सकता है.
उपाध्याय जी उन नेताओं में से हैं, जिनके बारे में कम पढ़ा गया है, कम जाना गया है और कम लिखा गया है. पहली बार 1968 में बौद्धिकों ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नोटिस करना शुरू किया. जनसंघ के अध्यक्ष बनने और उनकी हत्या तक का समय इतना कम है कि उनके विचारों की छाप भारतीय राजनीति में व्यापक रूप से नहीं पड़ सकती.
उन्हें अभी लोगों ने नोटिस करना शुरू ही किया था कि वे दुनिया से चले गये. कम ही लोग जानते हैं कि देश में गैर-कांग्रेसवाद की जो नींव पड़ी, उसके दो निर्माता हैं- डॉ राम मनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय. यह अज्ञात तथ्य है कि 1965 में लोहिया और उपाध्याय के साझा बयान से गैर-कांग्रेसवाद की शुरुआत हुई. यह दुर्भाग्य ही है कि दोनों 1968 में दुनिया से चले गये. उपाध्याय की सुनियोजित हत्या हुई थी और उस हत्या से पर्दा उठना अभी बाकी है.
यह कम ही लोग जानते हैं कि 1955 में उपाध्याय जी ने अपने एक लेख में इसका खोजी वर्णन किया था कि वामपंथी किस तरह से सुनियोजित हत्याएं करवाते हैं. और करीब-करीब उनकी हत्या भी उसी तर्ज पर हुई, जिसका जिक्र उन्होंने अपने लेख में किया था. अफसोस की बात यह है कि इतने सालों बाद भी हम यह नहीं जान सके हैं कि उनकी हत्या किस साजिश से क्यों हुई और जो अजातशत्रु था, उसे क्यों मारा गया.
(बातचीत : वसीम अकरम)