अपने ही हित साधें हम
मोहन गुरुस्वामी अर्थशास्त्री जापान के प्रधानमंत्री का भारत दौरा जाहिर तौर पर कामयाब रहा. हाल के महीनों में जापान और उसके भारतवासी मित्रों की ओर से इसके जोरदार प्रयास किये गये कि ये दो एशियाई शक्तियां एक तीसरी दबंग एशियाई शक्ति के विरुद्ध साथ आयें. डोकलाम संकट ने जापान को वह अवसर प्रदान कर दिया […]
मोहन गुरुस्वामी
अर्थशास्त्री
जापान के प्रधानमंत्री का भारत दौरा जाहिर तौर पर कामयाब रहा. हाल के महीनों में जापान और उसके भारतवासी मित्रों की ओर से इसके जोरदार प्रयास किये गये कि ये दो एशियाई शक्तियां एक तीसरी दबंग एशियाई शक्ति के विरुद्ध साथ आयें. डोकलाम संकट ने जापान को वह अवसर प्रदान कर दिया कि वह भारत की सद्भावना जीत सके और उसने इसे दोनों हाथों पकड़ा. जापान उन दो देशों में एक था, जिन्होंने इस तनातनी के बीच भारत का खुल कर समर्थन किया.
इसी बीच, जापान से भारतीय नौसेना के लिए अत्याधुनिक ‘सोर्यु’ श्रेणी पनडुब्बियों के क्रय की बातें क्या शुरू हुईं कि अचानक अखबारों के संपादकीयों तथा विश्लेषणों ने चीन के विरुद्ध भारत और जापान के एक नये सामरिक समीकरण का यशोगान शुरू कर दिया. हम भारतीय बहुत शीघ्र निष्कर्षों तक पहुंच जाया करते हैं.
इसके पूर्व, भारतीय नौसेना के लिए जापान से आधुनिक यूएस-2 विमानों की खरीद का मामला खटाई में पड़ने का तजुर्बा ताजा है, जब जापानी कानूनों के मद्देनजर अंतिम पलों में जापान ने यह फैसला लिया कि उसे उसकी आधुनिक आयुध और इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली से रहित कर ही भारत को विक्रय किया जा सकता है. चूंकि सोर्यु पनडुब्बियों की प्रहार क्षमता और भी अधिक है, अतः ऐसा कोई सामरिक संबंध संपन्न होने के पहले जापान को अपनी ही कानूनी अड़चनें पार करनी होंगी.
चीन के संदर्भ में भारत तथा जापान की भौगोलिक एवं भू-राजनीतिकस्थितियां पूर्णतः भिन्न हैं. जापान और चीन को एक गहरा सागर अलग करता है.
अमेरिका से जापान एक सुरक्षा संधि से बंधा है. वहीं, चीन से भारत एक लंबी विवादित भू-सीमा साझी करता है, जिसकी रक्षा के लिए हमारे लगभग 2.5 लाख सैनिक और हमारी वायुशक्ति का खासा बड़ा हिस्सा सन्नद्ध रहता है. कई मोरचों पर तो दोनों की सैन्य टुकड़ियां बिलकुल तनातनी की स्थिति और युद्ध की संभावनाओं के सन्निकट ही रहती हैं.
एक बड़ा सवाल यह है कि क्या हम हमेशा इसी नाटकीयता को वहन कर सकते हैं? चीन और जापान के रिश्ते पुराने जख्मों के निशानों से भरे हैं, जिन्हें उन दोनों का घनिष्ठ आर्थिक संबंध भी भर नहीं सका है.
एक-दूसरे के इरादों से सदा सशंकित रहते हुए भी उनके व्यापारिक रिश्ते 303 अरब डॉलर के मुकाम पर हैं, जबकि भारत-जापान के बीच यह सिर्फ 13.5 अरब डॉलर को ही पार कर सके हैं. चीन किसी भी दूसरे देश की बनिस्बत जापान से ज्यादा आयात करता है, जिनमें शामिल बहुतेरी सामग्रियां उसकी चढ़ती आर्थिक शक्ति के लिए अपरिहार्य भी हैं.
जापान द्वारा किये गये कुल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा चीन में निवेशित है, जबकि भारत में यह उसका अंश मात्र ही है. इसलिए बेहतर हो कि भारत उन दोनों के बीच रिश्तों और भावनाओं के इस भंवर से दूर रह सिर्फ अपने हित साधने से ही सरोकार रखे.
भारत के पास अभी से लेकर वर्ष 2060 तक यह अनुकूल जनसांख्यिक अवसर उपलब्ध है कि वह स्वयं को एक समृद्ध और आधुनिक राष्ट्र में रूपांतरित कर ले. उसके बाद, हमारी जनसांख्यिक संरचना हमारे विरुद्ध चली जायेगी और भारत वृद्धों की एक बड़ी तादाद का देश बन जायेगा. इसलिए, भारत के हित न सिर्फ समय ही धन है, बल्कि धन ही समय भी है. हमें अपने बुनियादी ढांचे के निर्माण हेतु वृहत तथा बड़ी दीर्घावधि प्रकृति के निवेश की सख्त जरूरत है. अभी की स्थिति में भारत की योजनाओं के लिए ऐसे बैंकों की भूमिका निभाने योग्य सुरक्षित नकदी भंडार वाले देश केवल चीन और जापान ही हैं.
इसलिए हमें इन दोनों ही देशों को आर्थिक साझीदार बनाने की आवश्यकता है. जापानी प्रौद्योगिकी और नीची ब्याज दर पर पूरी तरह उसकी ही निधि से मुंबई-अहमदाबाद के बीच भारत की पहली तेज रफ्तार रेल परियोजना इसकी जाहिर मिसाल है. पर, चीन द्वारा श्रीलंका में किये गये अथवा पाकिस्तान में किये जानेवाले ऊंची लागत के निवेशों के प्रति भारत खुला नहीं है और हम चीनी उद्योगों को बढ़ावा देने की लागत चुकाने को तैयार नहीं हैं.
चीन और जापान दोनों ने अमेरिकी बाजारों में अपने सस्ते निर्यात कर अपार दौलत बटोरी है. दूसरी ओर, भारत अपने पुराने श्रम कानूनों तथा अनुत्पादक श्रम माहौल की वजह से पंगु और ऊंची लागत का उत्पादक बना बैठा है.
हम व्यापार बढ़ती (सरप्लस) की अर्थव्यवस्था नहीं बन सकते. हमें एक मध्यवर्गीय समाज बनने मात्र के लिए विशाल पूंजी निवेश की जरूरत है. अभी तो अमेरिका इतना दरका हुआ देश है कि वह हमें पूंजी मुहैया नहीं कर सकता. वह सिर्फ ‘साझीदारी’ की पेशकश करता है, जिसमें जुमले ज्यादा होते हैं और सार कम. हमारे साथ हमारी जरूरत की आर्थिक साझीदारी सिर्फ चीन और जापान ही कर सकते हैं.
सो हमें उनके बीच ‘इसे या उसे चुनने’ के पचड़े में न पड़ कर दोनों के उन विशाल सुरक्षित भंडारों के लिए उपयुक्त निवेश गंतव्य पेश करने चाहिए, जिनसे वे अभी कोई कमाई नहीं कर पा रहे.(अनुवाद: विजय नंदन)