छोटे कदमों से बड़े बदलाव
वरुण गांधी सांसद, लोकसभा कायदे से तो भारत के गांवों में कोई परेशानी ही नहीं होनी चाहिए थी- आखिर कृषियोग्य भूमि के मामले में हमारा देश दुनिया में दूसरे स्थान पर है. लेकिन, उपजाऊ जमीन के एक तिहाई पर ही सिंचाई की सुविधा है, बाकी क्षेत्र बारिश पर निर्भर है. छोटी होती जोत और खेती […]
वरुण गांधी
सांसद, लोकसभा
कायदे से तो भारत के गांवों में कोई परेशानी ही नहीं होनी चाहिए थी- आखिर कृषियोग्य भूमि के मामले में हमारा देश दुनिया में दूसरे स्थान पर है. लेकिन, उपजाऊ जमीन के एक तिहाई पर ही सिंचाई की सुविधा है, बाकी क्षेत्र बारिश पर निर्भर है.
छोटी होती जोत और खेती की बढ़ती लागत से किसान पर कर्ज का बोझ बढ़ रहा है. वित्त वर्ष 2014 से 17 के दौरान कृषि और संबंधित क्षेत्र की जीडीपी 17 फीसदी की दर से बढ़ी. इसकी तुलना में ग्रामीण मुद्रास्फीति 16 फीसद रही. जाहिर है, बदहाली के साथ ग्रामीण भारत जहां का तहां पड़ा है.
ग्रामीण कर्ज गांवों की बदहाली की वास्तविक तस्वीर पेश करता है. पंजाब विवि के तीन साल पुराने अध्ययन में पाया गया था कि पंजाब में बड़े किसानों (10 हेक्टेयर से बड़े खेत) का कर्ज उनकी आय का 0.26 फीसद है, जबकि मध्यम दर्जे के किसान (4-10 हेक्टेयर) का कर्ज और आय का अनुपात 0.34 फीसद है. यह स्थिति बर्दाश्त की सीमा के अंदर है.
लेकिन, छोटे (1-2 हेक्टेयर) और सीमांत किसान (एक हेक्टेयर से कम जोत) पर कर्ज का बोझ ज्यादा है. इनकी आय और कर्ज का अनुपात क्रमशः 0.94 और 1.42 है. इस भारी कर्ज में भी पचास फीसदी गैर-बैंकिंग स्रोतों से लिया गया होता है. इसका नतीजा किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने आता है. यह कितना दुखद है कि बीते दो दशकों में हमारे देश में 3,21,428 किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
इसकी कई वजहें हैं. पिछले सालों में खाद्यान्न की कीमतों में काफी गिरावट आयी है. बुवाई क्षेत्र और उपज में वृद्धि, बफर स्टॉक और आयात में बढ़ोत्तरी, वैश्विक कृषि-उत्पाद के रुझान और नोटबंदी के दौरान सस्ते दाम पर बिक्री के चलते खाद्यान्न की कीमतों में गिरावट आयी- खासकर दलहन (बीते साल की तुलना में 13.64 फीसद) और सब्जियों (7.79 फीसद) की कीमत में (सीएमआइइ, 2017). इस दौरान खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 4 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई, जो 2010 और 2013 के बीच 13-15 फीसदी तक रही थी.
कृषि संसाधनों तक पहुंच की खाई भी चौड़ी हुई है- महाराष्ट्र में बड़े किसानों को सहजता से आधुनिक पंप मिल जाते हैं, जिसके नतीजे में वो ज्यादा मात्रा में पानी ले लेते हैं और छोटे व सीमांत किसानों के लिए बहुत थोड़ा (बशर्ते बड़े किसानों ने छोड़ा हो) पानी ही बचता है.
(पी भोगल दिसंबर, 2016). बीते कुछ वर्षों में उर्वरक और कीटनाशक के दामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है. वहीं, भारत में ज्यादा उपज देनेवाले बीज की सीमित उपलब्धता और ऊंची कीमत भी कृषि उत्पादन को प्रभावित करती है.
इन मुश्किलों में किसानों के पास फसल विविधीकरण के मौके बहुत कम हैं. उसका ध्यान गेहूं-चावल जैसी मुख्य फसलों पर रहता हैं, जिनके लिए सरकार तय कीमत की गारंटी देती है और जिसको कटाई के बाद रखने के लिए बुनियादी ढांचा भी है.
ज्यादा उपज की क्षमता को बढ़ाने, किसानों को शिक्षित करने की योजनाओं पर अमल और विश्व बाजार तक पहुंच अभी बहुत दूर की कौड़ी है.
भारत की कृषि रणनीति शुरू से ही लागत कम (खाद पर सब्सिडी और बीज पर अनुदान देकर) रखते हुए उत्पादन बढ़ाने (ज्यादा उपज वाली किस्मों की मदद से) के साथ न्यूनतम आय की गारंटी (समर्थन मूल्य) देने पर केंद्रित रही है. दूसरी तरफ, उपभोक्ता को सार्वजनिकवितरण प्रणाली की मदद से सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता था. लेकिन यह रणनीति धीरे-धीरे अपनी उपयोगिता खो चुकी है.
सब्सिडी खत्म किये जाने के साथ देश का कृषि संसाधन बाजार धीरे-धीरे नियंत्रणों से मुक्त होता जा रहा है. बजट घाटा कम करने के प्रयासों में सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण उपायों और ज्यादा उपज देनेवाली किस्मों पर सरकारी निवेश प्रभावित हुआ है.
कृषि उत्पादों के आयात में उदारीकरण ने भी घरेलू कीमतों में गिरावट में हिस्सेदारी निभायी. भारत के कृषि क्षेत्र को बाजार के इशारों पर नाचने के लिए छोड़ दिया गया. ऐसे में सीमांत किसान के लिए अस्तित्व बचाना मुश्किल होता जा रहा है.
ऐसे किसानों की मुश्किलें कम करने के लिए संस्थागत मदद के कई उपाय किये गये हैं. राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ट्यूबवेल सिंचाई, कृषि मशीनीकरण और सहायक गतिविधियों के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराता है.
वर्ष 1990 में राष्ट्रीय स्तर पर कृषिऋण माफी के फैसले ने ग्रामीण ऋण के प्रावधान पर हानिकारक असर डाला. यह एक ऐसा कदम था जिससे फौरी तौर पर तो फायदा हुआ, लेकिन इससे ऋण अनुशासन को धक्का लगा और ग्रामीण ऋण विकास में गिरावट आयी.
सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिए 1994-95 में रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड (आरआइडीएफ) और 1999 में किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) की शुरुआत की. इन दोनों का ही मकसद जरूरतमंद किसानों को ऋण की सुविधा मुहैया कराना था. बाद के बजटों मेंकृषि ऋण की सीमा बढ़ाये जाने, ब्याज में रियायत और केसीसी का दायरा बढ़ाये जाने से कृषि ऋण (वर्ष 2017 में 10 लाख करोड़) में बढ़ोत्तरी हुई.
निश्चित रूप से छोटे और सीमांत किसान अपने राज्यों की सरकारों से पूरी मदद की हकदार हैं. वैसे, भारत की कृषि नीति ने देश के किसानों में स्वस्थ ऋण संस्कार पैदा करने को हतोत्साहित ही किया है. जब उन्हें पता है कि अगले चुनाव में फिर कर्ज माफी स्कीम आनेवाली है, तो किसान क्यों जल्दी अपना कर्ज चुकाना चाहेगा? ऐसे कदमों से किसानों को अपनी हैसियत से आगे बढ़कर जोखिम उठाने का प्रोत्साहन मिलता है.
देश के छोटे और सीमांत किसानों को एक और कर्ज माफी की जरूरत है. हालांकि, एक बार दिये जाने के बाद यह भविष्य में जारी नहीं रखा जा सकता. उनकी समस्या के समाधान के लिए और भी दूसरे रास्ते हैं.
कृषि उपकरणों, खाद और कीटनाशकों की खरीद पर ज्यादा सब्सिडी दी जा सकती है, जबकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत उन्हें स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जा सकता है. मनरेगा का दायरा बढ़ा कर सीमांत किसानों को अपने खेत की जुताई के लिए भुगतान किया जाना चाहिए, जिससे कि उनको लागत घटाने में मदद मिलेगी.
ऐसे उपाय उनकी आय बढ़ा सकते हैं, और गांवों की बदहाली कम कर सकते हैं. इस तरह के छोटे-छोटे कदमों से उनकी जिंदगी में बड़े बदलाव लाये जा सकते हैं.