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गांधी ही गांधी : मिल तो लें

आलोक पुराणिक व्यंग्यकार करोलबाग दिल्ली का एक इश्तिहार बहुत चर्चित हुआ था- रिश्ते ही रिश्ते: मिल तो लें.दो अक्तूबर के आसपास सीन कुछ यूं हो जाता है- गांधी ही गांधी : मिल तो लें. भाषणों में गांधी, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में गांधी, फैंसी ड्रेस प्रतियोगिताओं में गांधी, गीतों में गांधी. गांधी ही गांधी मिल तो लें, […]

आलोक पुराणिक

व्यंग्यकार

करोलबाग दिल्ली का एक इश्तिहार बहुत चर्चित हुआ था- रिश्ते ही रिश्ते: मिल तो लें.दो अक्तूबर के आसपास सीन कुछ यूं हो जाता है- गांधी ही गांधी : मिल तो लें. भाषणों में गांधी, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में गांधी, फैंसी ड्रेस प्रतियोगिताओं में गांधी, गीतों में गांधी. गांधी ही गांधी मिल तो लें, गांधी के नाम पर खादी सिल्क पर डिस्काउंट चल निकलती है.

डिस्काउंट पर जो खादी खरीदता है उसके लिए गांधी का गहरा महत्व है. तीस प्रतिशत डिस्काउंट पर खादी खरीदने का मतलब हुआ कि हजार की खादी सात सौ रुपये में आ जाती है. तीन सौ रुपये जो बच जाते है, वह गांधी का योगदान मेरी अर्थव्यवस्था में रहता है. खादी की जितनी खरीद ज्यादा हो गांधी का योगदान डिस्काउंट की शक्ल में उतना ही बढ़ जाता है.

गांधी नयी पीढ़ी को डांडी मार्च के लिए याद रहें या न रहें, पर डिस्काउंट के लिए जरूर याद रहेंगे. कई महापुरुष इसलिए भुला दिये गये कि उनके नाम पर डिस्काउंट स्कीम नहीं चलायी जातीं. वल्लभभाई पटेल का बहुत बड़ा योगदान इस देश को है, पर नयी पीढ़ी उन्हें ज्यादा याद करेगी, अगर उनके नाम पर डिस्काउंट स्कीम शुरू कर दी जायें.

जवाहरलाल नेहरू और ज्यादा याद रहें नयी पीढ़ी को अगर उनके नाम से कोई डिस्काउंट स्कीम शुरू हो जाये. स्वतंत्रता संग्राम के अनगिनत योद्धा भुला दिये गये हैं, वो याद रखे जायेंगे अगर उनके नाम पर डिस्काउंट स्कीम शुरू कर दी जायें. डिस्काउंट का ताल्लुक जेब से होता है, सो याद रहता है. डिस्काउंट विहीन याद का ताल्लुक इमोशन से, दिमाग से होता है. इमोशन ज्यादा चल नहीं पाते.

दिमाग की मेमोरी में इतनी चीजें पहले ही अटी पड़ी हैं कि बंदा गांधी के लिए इमोशनल होने का टाइम कहां से लाये. दौर वह है कि बंदा अपने सगे पिता की मौत पर भी तेरह दिनों तक लगातार इमोशनल होने के तैयार नहीं है, वह राष्ट्रपिता के लिए एक दिन इमोशनल होकर उनकी याद कहां से कर लेगा. डिस्काउंट जेब का मामला है, तो गांधी बखूबी याद रह जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि नेहरू, पटेल और गांधी को याद रखवाने की कोशिश हमारी सरकारों ने नहीं की. पर मामला कुछ उलटा हो गया है. चाचा नेहरू अस्पताल अब बदहाली के लिए याद आता है.

और पटेल पुल देखकर याद आती है कि हाय इसके इंजीनियर कितनी रिश्वत खा गये इसमें कि सड़क के नाम पर कुछ मिट्टी बची है बस. गांधी के नाम पर बनी लाइब्रेरी में हर साल किताब खरीद में कमीशन खाने की खबर आती है. गांधी नेहरू पटेल के नाम अब दुर्दशा के लिए याद आते हैं. डिस्काउंट तो नोट बचाने के लिए याद आती है, तो गांधी अक्तूबर परम-स्मरणीय हो जाते हैं.

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