एमके वेणु
वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के हाल में आये कंज्यूमर कांफिडेंस सर्वे से यह बात सामने आयी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर लोगों में एक प्रकार का नैराश्य भाव है.
इसी साल कुछ महीने पहले भी आरबीआइ ने एक ऐसा ही सर्वे किया था, जिसमें उसने पाया था कि बेरोजगारी और अपनी आय को लेकर आम आदमी में निराशा की भावना साल 2013-14 में खराब अर्थव्यवस्था के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रबल थी. आरबीआइ ने एक और सर्वे किया था जनवरी-मार्च 2017 में और उस सर्वे में उसने छोटे उद्योगों से बात करके यह आंकड़ा पाया था कि उनकी बिकवाली करीब 58 प्रतिशत कम हो गयी थी.
यहीं वह बिंदु है, जहां हम यह समझ सकते हैं कि छोटे उद्योगों की क्या हालत हुई होगी और उससे जुड़े लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ा होगा. अगर कोई इसका कारण पूछे, तो करीब सारे अर्थशास्त्री इसका कारण नोटबंदी और जीएसटी बतायेंगे. क्योंकि आज जीएसटी की वजह से, छोटे व्यापारियों को टैक्स भरना बहुत महंगा पड़ रहा है. यहां पर हम कह सकते हैं कि अगर अर्थव्यवस्था एक शरीर है, तो उसे नोटबंदी और जीएसटी जैसी बड़ी-बड़ी सर्जरी से उसके स्वास्थ्य पर बड़ा असर पड़ा है. एक तरफ बेरोजगारी का संकट है, तो दूसरी तरफ महंगाई की मार. मुद्रास्फीति बढ़ रही है और विकास दर कम हो रही है. अर्थव्यवस्था की यह हालत ही लोगों में निराशा की भावना उत्पन्न होने का कारण है.
भारत में 55-60 प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं और भारतीय कंपनियों के लिए वह एक बड़ा बाजार है. नोटबंदी के बाद से जब ग्रामीण क्षेत्रों में पैसे की किल्लत बढ़ी, तो उससे कृषि उत्पादन पर असर पड़ा और ग्रामीणों की आय भी कम हो गयी.
इसका कारण यह हुआ कि कंपनियों के लिए ग्रामीण बाजार में अपना कारोबार करना मुश्किल होने लगा, क्योंकि खरीद क्षमता कम हो गयी. इसी साल के जून में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआइ) ने अपने शोध में यह पाया था कि 12 सौ कंपनियों के उत्पादन में साढ़े आठ-नौ प्रतिशत तक की गिरावट आयी थी. इस तरह से उत्पादन-मांग-खरीद क्षमता आदि का चेन कमजोर हो गया. ठीक इसी समय में जीएसटी भी आ गया, जिसने कारोबार मुश्किल होने लगा, क्योंकि उसकी प्रक्रिया में कई मुश्किलें-परेशानियां हैं. जीएसटी की पूरी व्यवस्था के बिना किसी परेशानी के चलने के स्तर पर पहुंचने में भी अभी छह-सात महीने का समय लग जायेगा.
सरकार ने कई चीजों पर 28 प्रतिशत की जीएसटी लगायी है, जबकि दुनिया के किसी भी देश में 19 प्रतिशत से ज्यादा जीएसटी नहीं है. इसका सीधा नुकसान कारोबार पर पड़ा है.
जिस तरह से मुद्रास्फीति बढ़ने लगी है, उससे सरकार घबरा गयी और फिर उसने जीएसटी में फेरबदल करके कुछ चीजों पर लगे 28 प्रतिशत को 18 प्रतिशत कर दिया है और 12 प्रतिशत को 5 प्रतिशत कर दिया है. यह तो ऐसा लगता है, जैसे सरकार ने एक मिनी बजट पेश कर दिया है, क्योंकि ऐसे काम बजट में होते हैं, जब सरकार बड़ी तादाद में टैक्स कम करती है. सरकार को यह सब जीएसटी लागू करने से पहले सोचना चाहिए था और प्रक्रिया को बेहतर बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए थी.
आम भारतीयों की निराशा जायज है और इसका असर मार्केट पर पड़ना ही पड़ना है. यशवंत सिन्हा अौर अरुण शौरी की बात सही है. सरकार ने इतने कड़े कदम उठाये हैं, जिससे कि लोगों को परेशानी हो रही है और उनमें निराशा बढ़ रही है. हालांकि, सरकार हमेशा यही कहती रही है कि लांग टर्म के लिए ये फैसले सही हैं और 2019 तक सब ठीक हो जायेगा. लेकिन, मेरा मानना है कि अर्थव्यवस्था सुधरने में अभी काफी वक्त लगेगा.
ब्रिटेन के एक अर्थशास्त्री थे- जॉन मेनार्ड कीन्स. विश्व युद्ध के बाद जॉन मेनार्ड कीन्स ने एक थ्योरी दी थी- ‘इन द लांग रन, वी आर ऑल डेड.’ इस थ्योरी के तहत कीन्स ने समझाया था कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए लांग टर्म के नाम पर सरकार को दो-तीन-चार साल का इंतजार नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे अपनी जनता को तुरंत राहत देनी चाहिए.
इस सिद्धांत को अगर आज भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में देखा जाये, तो आरबीआइ का सर्वे सिद्ध साबित होगा कि सचमुच लंबे समय के इंतजार में ही आम जनता में निराशा उत्पन्न हो रही है, क्योंकि फिलहाल वह परेशानी में है. ऐसे में सरकार को चाहिए कि जिस तरह से जीएसटी में कुछ राहत दी है, उसी तरह से शॉर्ट टर्म के लिए कोई प्रावधान निकाले, जो जनता को तुरंत राहत पहुंचानेवाला हो. दूसरी बात यह है कि सरकार का वित्तीय घाटा भी बढ़ रहा है, क्योंकि जीएसटी से जितनी आमदनी की उम्मीद थी, उतनी हो नहीं रही है. कुल मिलाकर अब यह तो अगले बजट में ही पता चल पायेगा कि इन बड़े कदमों से क्या-फायदे हुए हैं, सरकार को कितना फायदा हुआ है, और उस फायदे में से जनता को क्या-क्या मिलता है.