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पचहत्तर पर महानायक
डॉ मिहिर पांड्या फिल्म स्कॉलर हमारे नायक अमिताभ का आज 75वां जन्मदिन है. 2017 में खड़े होकर अमिताभ बच्चन के इस तकरीबन पचास साला फिल्मी करियर को देखना घाटी में खड़े होकर किसी विशाल पर्वत की चोटी पर नजर गड़ाने सरीख़ा मुश्किल काम है. बीते कितने ही सालों से वे अप्रतिम लोकप्रियता के शिखर पर […]
डॉ मिहिर पांड्या
फिल्म स्कॉलर
हमारे नायक अमिताभ का आज 75वां जन्मदिन है. 2017 में खड़े होकर अमिताभ बच्चन के इस तकरीबन पचास साला फिल्मी करियर को देखना घाटी में खड़े होकर किसी विशाल पर्वत की चोटी पर नजर गड़ाने सरीख़ा मुश्किल काम है. बीते कितने ही सालों से वे अप्रतिम लोकप्रियता के शिखर पर हैं.
टेलीविजन ने उन्हें घर-घर पहुंचाया है आैर सत्तर के दशक का यह गुस्सैल ‘एंग्री यंग मैन’ आज हमारे घर परिवार के अपने किसी सम्मानित बुजुर्ग सा महसूस होता है. मेरी पीढ़ी के बच्चों ने उनका जवानी वाला गुस्सैल अवतार घिसी हुई वीडियो कैसेट्स पर आैर छोटे टीवी पर ही देखा, लाइव घटता हुआ नहीं, हमारे लिए वे ही मुख्यधारा थे. महानायक. लेकिन थोड़ा विश्लेषण करने पर आप यह पायेंगे कि दरअसल अमिताभ का सिनेमाई उभार हिंदी सिनेमा की मुख्य धारा को हमेशा के लिए बदल देनेवाला था.
वे जरूरत से ज्यादा लंबे थे. इसे उनके नायक बनने में रुकावट माना गया. इसके चलते साथ काम करने को कोई नायिका नहीं मिलेगी, यह तक ताने की तरह कहा गया. लेकिन भविष्य उनका हुआ. मां-पिता आैर दोस्त-भाई के त्रिकोण में घूमते उनके सिनेमा ने नायिकाअों को ही हाशिये पर भेज दिया. उनकी आवाज को तय सांचों से अलग पाया गया था.
उन्होंने सिनेमा की दुनिया में आवाज के मानक ही बदल दिये. मैलोड्रामा आैर अति नाटकीयता से भरे हिंदी सिनेमा में वे अपने पुकारते हुए मौन आैर आंखों में भरे गुस्से से अभिनय का नया व्याकरण लिख रहे थे. ‘सात हिंदुस्तानी’ के अंतर्मुखी, लेकिन भीतर अंगार भरे शायर अनवर अली से लेकर ‘पिंक’ के निराश आदर्शवादी दीपक सहगल तक उनकी यह अभिनय यात्रा लोकप्रियता के दलदल में असंभव का संधान है.
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री आैर विचारक विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘सफलता आैर कुछ नहीं, बस एक नाकामी से दूसरी नाकामी तक जरा भी जज्बे को खोये बिना चलते चले जाना है.’ जब हम महानायक अमिताभ के पांच दशकों में फैले अभिनय करियर को देखते हैं, तो उसमें हमें बहुत सारे टिमटिमाटे जगमग सितारे नजर आते हैं.
इसमें सबसे आगे सत्तर के दशक का उन्हीं के हमउम्र दो गुस्सैल युवाअों सलीम-जावेद का लिखा ‘एंग्री यंग मैन’ विजय है, जिसने उस दौर के मोहभंग को सिनेमाई अभिव्यक्ति दी. इसमें राजनीति के मोर्चे से वापस सिनेमा के परदे पर लौटा अभिनेता है, जिसकी चमक जरा धुंधली नहीं पड़ी. इसमें टेलीविजन के आगे हारते सिनेमा का अस्त होता हुआ सितारा है, जिसने उसी टीवी सेट को हथियार बनाकर अपनी खोई हुई महानायक की पदवी वापस हासिल की, करोड़पति स्टाइल में.
अमिताभ के व्यक्तित्व को केवल उनकी बुलंदियों से नहीं आंका जा सकता. उन्होंने अंधेरे को नजदीक से देखा है. जिस सत्ताधारी राजनीति से उनकी नजदीकियों के आजकल बड़े चर्चे होते हैं, अस्सी के दशक में उसी राजनीति की पिच पर उन्होंने अपने जीवन की सबसे बड़ी चोट खायी है.
गंभीर आरोप लगे. वे अकेले पड़े आैर उनकी जिंदगी के कुछ सबसे कीमती रिश्ते इसी राजनीति की पारी में स्वाहा हुए. वापस लौटे तो लोकप्रिय सिनेमा अपनी गर्त में था, उबर पाने की असफल कोशिश में अमिताभ के हिस्से ‘जादूगर’, ‘तूफान’, ‘शहंशाह’ आैर ‘अजूबा’ जैसी फिल्में ही आयीं.
अभिनय से उनका दूसरा संन्यास भी कुछ सुखदायी नहीं रहा. आज जिस बाजार के वो सबसे बड़े आैर बिकनेवाले ब्रांड हैं, सच यह है कि भारतीय उदारीकरण के शुरुआती चरण में उसी बाजार ने उनके दोनों हाथ जलाये हैं. नब्बे के दशक में उनकी कंपनी एबीसीएल बड़ी उम्मीदों के साथ बाजार में उतरी. नये अभिनेताअों के साथ उनकी बनायी ‘तेरे मेरे सपने’ ने हमें अरशद वारसी आैर चंद्रचूड़ सिंह जैसे अभिनेता दिये.
टीवी पर वे ‘देख भाई देख’ जैसा जिंदादिल धारावाहिक को लेकर आये, आैर भारत की धरती पर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता ‘मिस वर्ल्ड’ को उतारा. लेकिन, रणनीतिक दांवपेंचों वाले अर्थ के खेल में यह अभिनेता फिर हारा, आैर उनके गहरे दोस्त भी साथ छोड़ गये. सिनेमा के परदे पर वापसी की आैर अभिनय की ताकत से हारी हुई लड़ाई जीतनी चाही. लेकिन हिस्से फिर ‘मृत्युदाता’, ‘मेजर साब’ आैर ‘लाल बादशाह’ आयीं.
वे फिर भी जीते. क्योंकि उन्होंने असफलताअों के पार देखना सीख लिया था. आज के इस सफल अमिताभ को देखकर लगता है कि जैसे इन बीते अंधेरों ने उनके मन में एक कभी ना मिटनेवाला कड़वापन भर दिया है. उन्होंने अपने चारों अोर आभा से भरा सुरक्षित घेरा बना लिया है, जिसने शायद उनके भीतर के प्रयोगशील रचनाकार को कुछ सीमित किया है.
वे मीडिया से खुलकर नहीं मिलते आैर सिनेमा के बाहर किसी भी विवादास्पद मुद्दे पर अपनी राय आसानी से सामने नहीं रखते हैं. उन्हें यथास्थितिवादी कहनेवाले कम नहीं. हां, सोशल मीडिया ने उन्हें वापस अपने दर्शकों से सीधे जोड़ा है. अपने शब्दों में वे अपने सबसे सहज रूप में दिखायी देते हैं. शायद पिताजी की याद है, जो उस मन के कड़वेपन को उनके शब्दों तक नहीं पहुंचने देती. यहीं उम्मीद की किरण है.
आज अमिताभ अपने जीवन के चतुर्थ प्रस्थान पर खड़े हैं. एक बार राजनीति आैर दूसरी बार व्यापार के चलते अभिनय से दूरी बना चुके अमिताभ इस तीसरी पारी में शुरू में कुछ लड़खड़ाये थे, लेकिन साल 2000 से लगातार फ्रंटफुट पर खेल रहे हैं.
अभी तो उन्होंने अपनी तीसरी इनिंग डिक्लेयर भी नहीं की है, आैर वे चमकदार सिनेमाई करियर की चौथी इनिंग जेब में लिये खड़े हैं. चौथी पारी, जो कठिन लेकिन खेल का सबसे रोमांचकारी आैर रचनात्मक हिस्सा होता है.
जो यहां जोखिम उठाता है, अमृत पाता है. इस उम्र में यह उनके लिए चुनिंदा काम का दौर है. एक सुरक्षित खेलने की भावना दिखायी पड़ती है, जब वे आर बाल्की, राम गोपाल वर्मा आैर प्रकाश झा जैसे परिचित निर्देशकों को रिपीट करते हैं.
लेकिन उनके भीतर का संभावनाअों से भरा कलाकार जूही चतुर्वेदी आैर रितेश शाह की लिखी एवं शुजित सरकार आैर अनिरुद्ध राय चौधरी निर्देशित ‘पीकू’ आैर ‘पिंक’ जैसी फिल्मों में उभरकर आता है. ये फिल्में सबूत हैं कि अमिताभ के लिए यही समय है कि वे खुद को परिचित के घेरे में ना बांधें आैर नये लोगों की अद्भुत नवेली कल्पनाअों से भरी सोच को परदे पर अपने धड़कते अभिनय के जरिये जिंदा कर दें.
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