ठूंठ में कोंपल

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार क्या आपने कभी किसी कटे पेड़ की ठूंठ में कोंपल फूटते देखा है? या क्या आपने किसी चहारदीवारी पर किसी पेड़ के नन्हें पौधे को लहराते देखा है? पता नहीं करिया कक्का इन बातों का जिक्र यदा-कदा क्यों करते रहते हैं. वे अक्सर कहते हैं कि कभी-कभी ठूंठ में भी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 12, 2017 6:17 AM
मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
क्या आपने कभी किसी कटे पेड़ की ठूंठ में कोंपल फूटते देखा है? या क्या आपने किसी चहारदीवारी पर किसी पेड़ के नन्हें पौधे को लहराते देखा है? पता नहीं करिया कक्का इन बातों का जिक्र यदा-कदा क्यों करते रहते हैं.
वे अक्सर कहते हैं कि कभी-कभी ठूंठ में भी कोंपलें फूट पड़ती हैं. वे बताते हैं कि राह चलते जब भी उनकी नजरें ऐसे दृश्यों से टकराती हैं, तो वे ठिठक जाते हैं. वे कहते हैं कि जीवन की जिजीविषा को दर्शाते ऐसे दृश्य विरले ही देखने को मिलते हैं. हाल-फिलहाल पेड़ को काट दिया गया है. अब बस उसकी जरा सी ठूंठ ही बची हुई है, जो धीरे-धीरे सड़-गल रही है. लेकिन, तभी क्या कुछ होता है कि उस ठूंठ में से कोंपलें फूटने लगती हैं. क्या यह अद्भुत दृश्य नहीं है!
कक्का जब यह बात उठाते हैं, तो उन्हें कुछ और भी याद हो आता है. वे पूछने लगते हैं कि क्या तुमने कभी देखा है- दीवार पर पीपल के उगते पौधे का दृश्य? या फिर चहारदीवारी पर उगे बरगद के पौधे का दृश्य? ऐसे दृश्य हमें ऐसी आशा से भर देते हैं कि जहां कोई उम्मीद नहीं होती, वहां भी हरियाली पसर सकती है. और जहां पर हरियाली को नष्ट कर दिया गया है, वह वहां भी पनप सकती है.
वृक्ष की ठूंठ से उतरकर कक्का मनुष्य जगत् में प्रवेश कर जाते हैं. वे कहने लगते हैं कि उन्होंने सुन रखा है और देख रखा है और आज देख भी रहा है.
कहने लगते हैं कि बात बहुत पुरानी नहीं है. उनके पहले के जमाने में स्त्रियां पांव की जूती के बराबर समझी जाती थीं. वे घर से बाहर अकेले निकलने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं. घर में भी ऐसे रहती थीं कि लगता था कि आदमी नहीं, बल्कि कपड़े का कोई लबादा रहता हो. लेकिन, अब देख लो. तब क्या कोई कल्पना कर सकता होगा कि आज स्त्रियों के जीवन में ये दिन आयेंगे कि वे मोपेड पर चढ़कर काम पर जायेंगी और एवरेस्ट पर झंडा लहरा आयेंगी. अब देख लो कि बेटियां कहां से कहां तक पहुंच गयी हैं.
कक्का बता रहे थे कि उनके जमाने में इस दृश्य के सिर्फ कोंपल फूटी थीं. अब वह कोंपल एक विशाल पेड़ में तब्दील हो गयी है. उनके जमाने से पहले स्त्रियों के साथ पता नहीं क्या-क्या होता था, मगर वे चुप रहती थीं.
वे सिर्फ मुंह में कपड़ा ठूंसकर सुबक सकती थीं. उनका जमाना आते-आते स्त्रियां पीड़ित करनेवाले को गुर्रा कर देखने लगी थीं. लेकिन, अब देख लो. कैसे पृथ्वी का वह छोर हिलने लगता है, जहां कहीं किसी स्त्री-जाति पर अत्याचार होता है. कक्का कह रहे थे कि ठूंठ से जो बहुत पहले कोंपल फूटी थी, वह कोंपल अभी और विशाल होगा. बहुत विशाल होगा. तब पूरी पृथ्वी छाया से आच्छादित हो जायेगी.

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