बेहद जरूरी फैसला
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 18 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध को बलात्कार मानने के फैसले से निश्चित ही बच्चियों के अधिकारों को बल मिला है. तमाम कायदे-कानूनों के बावजूद आज भी देश में 27 फीसदी लड़कियां 18 साल की आयु पूरी होने से पहले ही शादी के बंधन में बांध दी […]
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 18 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध को बलात्कार मानने के फैसले से निश्चित ही बच्चियों के अधिकारों को बल मिला है.
तमाम कायदे-कानूनों के बावजूद आज भी देश में 27 फीसदी लड़कियां 18 साल की आयु पूरी होने से पहले ही शादी के बंधन में बांध दी जाती हैं, जिसके लिए वे शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम नहीं होतीं. बाल विवाह के जरिये बच्चियों के मानवीय और सामाजिक अधिकारों को छीनने की इस परंपरा का देश के ज्यादातर हिस्सों में जारी रहना दुर्भाग्यपूर्ण है. लैंगिक विषमता की भयावह तस्वीर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे हर अहम मोर्चे पर नजर आती है.
दहेज प्रतिबंध, बाल विवाह और जन्म से पूर्व लिंग परीक्षण पर रोक जैसे कानूनों के बावजूद समानता और सशक्तीकरण का लक्ष्य अभी दूर है. भारत में 21 वर्ष से पहले लड़के और 18 वर्ष से पहले लड़की की शादी गैरकानूनी है, लेकिन हर साल 1.4 करोड़ लड़कियों की शादी 18 वर्ष से पहले ही कर दी जाती है. यह सही है कि देश में विवाहित लगभग 2.3 करोड़ महिलाओं की उम्र 18 वर्ष से कम है, लेकिन आर्थिक और सामाजिक विकास पर जागरूकता और सजगता का अभाव उससे कहीं ज्यादा निराशाजनक है.
बाल विवाह से बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है. दंड संहिता में 15 से 18 वर्ष की पत्नी के साथ यौन संबंध को अपराध की परिभाषा से बाहर रखा गया था. यह अन्य कानूनों, मसलन- पोक्सो और जूविनाइल जस्टिस एक्ट द्वारा तय परिभाषा (18 वर्ष) के विपरीत था. जब पोक्सो कानून में 18 वर्ष से कम आयु से बच्चों के साथ शारीरिक संबंध अपराध है, तो कम आयु में शादीशुदा बच्चियों के साथ यौन संबंध को कैसे स्वीकार्यता दी जा सकती है?
सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने सरकार से पूछा था कि सभी उद्देश्यों के लिए सहमति की उम्र 18 वर्ष तय है, तो बाल विवाह के मामले में छूट क्यों. देश में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी और लैंगिक समानता की स्थिति वैश्विक स्तर पर औसत से बहुत नीचे है. इन तमाम समस्याओं का हल बच्चियों की शिक्षा, कम आयु में विवाह पर रोक और उनकी सुरक्षा तय करके निकाला जा सकता है.
स्वस्थ, शिक्षित और स्वावलंबी महिला न केवल स्वयं के लिए, बल्कि परिवार और समाज की बेहतरी में अपना योगदान दे सकती है. सिर्फ सरकारी कार्यक्रमों और कानूनों द्वारा इसे हासिल नहीं किया जा सकता है, जरूरत इस बात की भी है कि हर नागरिक व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से सकारात्मक योगदान करे.