तीर्थस्थल हों शहीदों की यादगारें
डॉ सय्यद मुबीन जेहरा शिक्षाविद् देश के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर चलनेवालों की यादगारें हमारे लिए क्यों तीर्थ स्थल नहीं होते हैं. क्यों हम अपने मन में यह नहीं ठानते हैं कि हम शहीदों की यादगारों पर हर बरस मेले लगायेंगे? क्यों हम उन स्थानों पर जाने के लिए मन में नहीं ठानते […]
डॉ सय्यद मुबीन जेहरा
शिक्षाविद्
देश के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर चलनेवालों की यादगारें हमारे लिए क्यों तीर्थ स्थल नहीं होते हैं. क्यों हम अपने मन में यह नहीं ठानते हैं कि हम शहीदों की यादगारों पर हर बरस मेले लगायेंगे?
क्यों हम उन स्थानों पर जाने के लिए मन में नहीं ठानते हैं, जहां हमारे देश के शहीदों ने अपने प्राणों की आहुति दी हुई होती है? हम लोग अपने सैनिको को सिर्फ छब्बीस जनवरी या पंद्रह अगस्त या ऐसे ही कुछ दिनों में ही क्यों याद करते हैं? यह ख्याल मुझे तब आया, जब पिछले दिनों मैं लामाओं की धरती लद्दाख के कारगिल में कुछ दिन के लिए गयी थी.
जब कारगिल की ऊंची पहाड़ियों को देखा, जिन पर हमारे वीर शहीदों ने दुश्मनों से जंग लड़ते हुए अपने प्राण निछावर कर दिये, तो दिल अपने आप ही इन शहीदों के एहसान तले दबता चला गया. तोरा-बोरा की पहाड़ी हो या फिर टाइगर हिल की तीनों छोटी चोटियां, इन्हें देखने के बाद आप हैरान हो जाते हैं कि कैसे इन पहाड़ियों पर ऊपर से आती गोलियों की बौछारों के बीच हमारे वीर सपूत दुश्मनों के सामने लोहे की दीवार बना गये थे. तब यह विचार मन में आया कि क्यों नहीं इन स्थानों को तीर्थ स्थल मानकर घूमा-देखा जाये.
हम कारगिल युद्ध के स्मारक पर भी गये. अनायास कारगिल के शहीदों की याद आ गयी. उस जगह को अपनी आंखों के सामने देखा, तो लगा कि हमारे वीर सैनिकों ने उन दुर्गम पहाड़ियों को कैसे अपनी मुट्ठी में लिया होगा. कारगिल और द्रास के टाइगर हिल क्षेत्र में आपको हम सबको एक बार जरूर जाना चाहिए. हमें अपने बच्चों को, देश के युवाओं को, विद्यार्थियों को कारगिल युद्ध से जुड़े स्मृति स्थल जरूर दिखाना चाहिए.
अक्सर हम आप कभी-न-कभी अपने घरों में बैठकर अपनी सेना की आलोचना करते हैं और उनकी क्षमता एवं निष्ठा पर सवाल उठाते हैं. जब आप कारगिल युद्ध स्मारक पर बने हमारे शहीदों के नाम की समाधि के पत्थरों को पढ़ेंगे, तो मन दुख और गौरव दोनों ही भावनाओं से भर जायेगा.
दुख इस बात का कि यह सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये और आज अपने परिवार के साथ नहीं हैं और गर्व इस बात का कि भारत मां ने ऐसे कितने वीर सपूत पैदा किये हैं, जो हंसते-हंसते मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं. शहादत को गले से लगा लेते हैं. आपका मन इन वीर आत्माओं को नमन करेगा और इनकी खामोशी भरी स्मृति आपके अंदर एक शोर भर देगी, जो आप से सवाल करेगी कि क्या जो शहीद हुए हैं, उनकी कुर्बानियाें को हम उस तरह से याद रख रहे हैं, जैसा कि उनका हक है?
इसके साथ-साथ हमें कुछ व्यावहारिक सवाल भी उठाने होंगे. हमारे समाज में एक ऐसी प्रथा है कि जहां हम किसी भी इंसान को एकदम देवता या देवी का दर्जा तो दे देते हैं और इंसान होने की उनकी जरूरतों को नजरअंदाज कर देते हैं.
हमें शहीदों के परिवार के बारे में भी नये सिरे से सोचना होगा और उनके सामाजिक योगदान को हर हाल में सराहना होगा. उन्हें इस बात का एहसास हर हाल में कराना होगा कि उनके खून के जिस रिश्ते ने देश के लिए अपना खून बहाया है, उनकी यह कुर्बानी और बलिदान देश कभी भी नहीं भूलेगा. यह हम सब छोटी-छोटी कोशिशों से कर सकते हैं. हमें अपनी सोच और कार्यशैली दोनों में ही राष्ट्र श्रेष्ठ की सोच को हावी करना होगा.
एक संपूर्ण भारतीय नागरिक वह ही कहला सकता है, जो एक सैनिक की भांति अपने कार्य को देश के प्रति समर्पित कर सके. एक आदर्श नागरिक वह ही होगा, जो समय पर और सही तरह अपना काम कर के राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे. जो देश के संविधान का ध्यान रखे, जो कानून का ऐसा पालन करे कि लाल बत्ती तक कूदते हुए उसे इस बात का ध्यान रहे कि वह भारत के कानूनों का सम्मान करता है.
लद्दाख के लेह में दूरगामी क्षेत्रों के दौरे के बाद, जगह-जगह अपने सैनिकों को शत्रु से अधिक प्रकृति की सख्ती से टकराते देखकर अपने आप ही उनके सम्मान से भर उठी हूं. यह जज्बा पहले से था तो जरूर, मगर मैं अगर कारगिल और लेह नहीं गयी होती, तो इस में इतना अधिक जोश पैदा नहीं होता. इसलिए देश के सैनिकों को हर समय याद रखें और उनकी कुर्बानियों को कभी न भूलें. आप को जब भी मौका मिले, उन जगहों के दर्शन को जरूर जायें, जहां हमारे वीरों का लहू गिरा है.
यह मुमकिन है कि लेह, कारगिल और द्रास में आप का फोन न चले, आप बाहरी दुनिया से न जुड़ पायें, मगर यही अवसर आप को अंदरूनी दुनिया से जोड़ने के लिए काफी है. आपको इस बात का भी आभास हो जायेगा कि डिजिटल इंडिया की चमक अभी इन क्षेत्रों में नहीं पहुंची है.
इस बात का भी एहसास होगा कि हम लोग भारत के कुछ इलाकों को प्रगति के पथ से कितना दूर रख रहे हैं. इस प्रकार कई इलाके भारत के दूसरे प्रांतों में भी होंगे. हमें उनके आर्थिक और सामाजिक उत्थान की चिंता करनी होगी.
लद्दाख और उसकी पहाड़ियों में बसे गांवों के बारे में भी सोचना होगा. आज भी यहां बच्चे सुबह आठ बजे स्कूल के लिए निकलते हैं और रात को नौ बजे तक अपने घर पहुंचते हैं. कुछ गांव तो केवल पगडंडियों से ही रास्ता चलते हैं और अपनी जरूरतों के लिए मीलों पैदल चलते हैं.
जब तक समाज में एक दूसरे की सामाजिक और आर्थिक जरूरतों का ख्याल नहीं होगा, तब तक सरकार की योजनाएं केवल नाम भर की ही रह जायेंगी. सरकार सभी को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनाती है, लेकिन समाज के जो नागरिक हैं, उनकी जिम्मेदारी है कि इन योजनाओं का फल हाशिये पर रहनेवाले लोगों तक भी पहुंचाया जाये.
देश की प्रगति और विकास तब ही मुमकिन है, जब सबका साथ और सबका विकास हो.यही राष्ट्र के प्रति सच्ची निष्ठा कही जायेगी. हो सकता है इन दूरस्थ स्थानों में देश के किसी शहीद का भी गांव हो, जिसका विकास अगर होगा, तो देश के शहीदों की आत्मा को इस प्रकार भी शांति मिलेगी कि देश उनके बलिदान को भुला नहीं है. लेकिन, जरूरी है कि हम शहीदों के बलिदान स्थल को भी तीर्थस्थल के तौर पर विकसित करें और जीवन में एक बार जरूर यहां जाकर श्रधांजलि अर्पित करें.