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पटाखे और धर्म

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार जब से उच्चतम न्यायालय ने पटाखों की बिक्री पर रोक लगायी है, तब से एकाएक ऐसी बहस छिड़ गयी है, जैसे कि पटाखे न हुए किसी खास धर्म के प्रवक्ता हो गये. ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि पटाखे चलाने न चलाने को किसी खास धर्म की अस्मिता से […]

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

जब से उच्चतम न्यायालय ने पटाखों की बिक्री पर रोक लगायी है, तब से एकाएक ऐसी बहस छिड़ गयी है, जैसे कि पटाखे न हुए किसी खास धर्म के प्रवक्ता हो गये. ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि पटाखे चलाने न चलाने को किसी खास धर्म की अस्मिता से जोड़ दिया गया है. बड़े-बड़े बयान दिये जाने लगे कि इस पर रोक क्यों नहीं, उस पर रोक क्यों नहीं.

समाज में सवाल तैर रहा है कि सिर्फ एक धर्म को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है. जिन लोगों ने न्यायालय के फैसले का स्वागत किया, उन्हें ट्रोल किया जाने लगा. जबकि न्यायालय ने पटाखे चलाने पर नहीं, उनकी बिक्री पर रोक लगायी है .

सब मानते हैं कि दीवाली खुशियों का, उत्सव का, उजाले और रोशनी का त्योहार है. उसमें पटाखों के शोर-शराबे से भला क्या लाभ होता है. धुएं और शोर से किसी की खुशियां बढ़ती हों, ऐसा सुना तो नहीं. फिर वायु और ध्वनि प्रदूषण के कारण होनेवाले रोगों की बातें होती रही हैं. डाॅक्टर बताते रहे हैं कि वायु प्रदूषण के कारण छोटे बच्चों के फेफड़ों का रंग तक काला हो गया था.

फिर क्या कोई भी धर्म इतना कमजोर होता है कि उस पर मामूली बातों से खतरा मंडराने लगता है. धर्म उसके अनुयायियों से चलता है. और जब तक उसके अनुयायी उसे मानते हैं, तब तक वह कभी खत्म नहीं होता. न किसी के कहने से हो सकता है. वैसे भी बारूद का किसी धर्म से क्या लेना-देना.

उसका तो एक ही धर्म होता है- हिंसा. इसलिए हर शांतिप्रिय व्यक्ति को सोचना चाहिए कि इस धरती से बारूद का नामोनिशां मिट जाये. ऐसा रसायन जो हिंसा और अशांति का वाहक हो, उसका मिट जाना ही बेहतर, जिससे कि मानवता बची रहे. उसका धर्म बचा रहे. हमें सोचना चाहिए कि पटाखों का कोई धर्म नहीं होता. वे हिंदू-मुसलमान नहीं होते.

अब सोचना तो यह होगा चाहिए कि पटाखों की बिक्री पर उच्चतम न्यायालय की रोक से पटाखे बनानेवालों और बेचनेवालों का घाटा होगा. साथ ही इस धंधे में लगे कर्मचारियों-मजदूरों का नुकसान होगा. उनके रोजगार चले जायेंगे. सोचिए कि उनके घर कैसे चलेंगे. उनके लिए कौन से नये रोजगार सृजित किये जायेंगे.

अरसे से बच्चों के लिए काम करनेवाले संगठन सिवाकाशी के खतरनाक पटाखा उद्योग में बच्चों के काम करने का मुद्दा उठाते रहे हैं. हालांकि, यह बात भी सोचने की है कि अगर ये बच्चे गरीब न होते, तो भला इस धंधे में बिना जान की परवाह के काम ही क्यों करते. और असमय ही गंभीर रोगों के शिकार क्यों होते. लेकिन ये अलग मुद्दा है.

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